दोस्तों आज के इस आर्टिकल में हम भारत के इतिहास के आर्यों का भौतिक और सामाजिक जीवन देखेंगे। आप इस आर्टिकल को ध्यान से पढ़ना ताकि इस विषय से संबंधित सभी प्रकार की जानकारी आपको मिल सके।
भारत में आर्यों का आगमन 7000 से 3000 ईशा पुर्व के अंदर हुआ था। भारत में पहले से रहने वाले लोग जिन्हें हम प्रारंभिक भारतीय कह सकते हैं, वे 65000 साल पहले एक साथ मिलकर आफ्रीका से हिंदुस्तान में आए थे। इससे साबित होता है, कि आर्य भारत के मूल निवासी नहीं थे। इतिहासकारों का मानना है कि आर्य मध्य एशिया के मूल निवासी थे। दूसरे कई सारे इतिहासकारों ने अपना मत देते हुए बताया है, कि आर्य का मूल दक्षिणी रूस अथवा दक्षिणी पूर्वी यूरोप रहा होगा। भारत में बस गए आर्य को इंडो आर्यन के नाम से जाना जाता था। बाल गंगाधर तिलक में बताया था, कि आर्यन सबसे पहले साइबेरिया में आकर स्थित हुए थे। परंतु इस विस्तार के गिरते तापमान के कारण उन्होंने हरियाली वाले विस्तार में जाकर वहां के निवासी बन गई।
आर्य शब्द का इस्तेमाल आर्यवर्त प्राचीन अखंड भारत के लोगों के द्वारा स्व-पदनाम के रूप में किया जाता था। जबकि वैदिक काल में भारतीय लोगों द्वारा आर्य शब्द का इस्तेमाल एक जातीय लेबल के लिए किया जाता था।
आर्यों का भौतिक जीवन
आर्यों की भौतिक जीवन की माहिती ऋग्वेद में विस्तृत रूप से दी गई है। जैसे की गाय और सांड की चर्चा तथा समाज में बढ़ई, रथकाल, बुनकर, चर्मकाम और कुम्हार इत्यादि शिल्पीयो का वर्णन देखने को मिलता है। ऋग्वेद के सुत्त्कों मे आर्यों के देवताओं और देवताओं की उपासना करने की पद्धति का वर्णन किया गया है। रुग्वैदिक आर्यन अपनी कामयाबी का श्रेय अपने घोड़ों, रथों के हथियारों के प्रति अपनी सूझबूझ को देते है। आर्य राजस्थान के विस्तार में खेत्री प्रांत से तांबे का कारोबार करते थे।
आर्य बुवाई, कटाई और खलीहाल के लिए आर्यन लड़की के हलों का हिस्सेदारी में उपयोग करते थे। आर्य के पास महत्वपूर्ण संपत्ति के रूप में गाय थी। आर्यन की अधिकतर लड़ाई गायों के तबेले पर नियंत्रण के विषय में होती थी। ऋग्वेद मे इन लड़कियों को गवीस्थी अथवा गायों की खोज के नाम से उल्लेखित किया गया है। आर्य जमीन को निजी संपत्ति के रूप में नहीं देखे थे। उनके समय में तांबा, लोहा और पितल जैसी धातुओ का इस्तेमाल होता था। कुछ आर्य सुनार के काम से, कुछ कुम्हार, तो कुछ सूत कातने और बढ़ई के काम से जुड़े हुए थे।
आर्यों की आदिवासी राजनीति
आदिवासी लोगों के मुखिया को राजन के नाम से जाना जाता था। मुखिया का उत्तराधिकारी वंशानुगत होता था। राजा के साथ साथ आदिवासी सभा, समिति, गण और विधाता भी फैसला लेने का अधिकार रखते थे। वैदिक काल में महिलाओं को भी सभा और विधाता में स्थान दिया जाता था।
नीचे बताए गए दो प्रमुख पदाधिकारी जो राजा मदद कर सकते हैं।
- पुरोहित अथवा मुख्य पंडित
- सामान्यत अथवा सेना प्रमुख
आर्यों के समय में गलत काम करने वाले लोगों पर नजर रखने के लिए उनके पीछे जासूस को लगाये जाता था। अधिकारी जो गांव में निवास करने लग गए हो और गांव की जमीन पर अपना अधिकार जमा लिया हो, उसे वज्रपति के नाम से जाना जाता था। वज्रपती का नियंत्रण क्षेत्र सेना के द्वारा होता था। परिवारों के मुखिया और युद्ध के लिए सेना बटालियनो को नियंत्रित और सेना का नेतृत्व भी करते थे। हालांकि आर्य लोगों के पास स्थायी सेना नहीं थी, परंतु आर्यन कुशल सेनानी थे। उनकी प्रकृति आदिवासी थी। जिसकी वजह से आर्यनो मे निर्धारित प्रशासनिक व्यवस्था का अभाव था। आदिवासी प्रकृति के कारण वे लगातार एक जगह से दूसरी जगह घूमते रहते थे।
आर्यों का सामाजिक विभाजन
आर्य वर्ण के प्रती जागृत थे। जिसकी वजह से उन्होंने वर्ण के माध्यम पर जातीय भेदभाव करना प्रारंभ कर दिया था। आर्य भारत के मूल निवासियों से रंग रूप में ज्यादा गोरे थे। जिसके कारण सामाजिक प्रणालियों का उद्भव हुआ था। दास और दस्यु के साथ गुलामो जैसा व्यवहार करने में आता था। साथ ही शूद्र को सभी जातियों में से सबसे निम्न जाति के स्थान पर रखा गया था। आदिवासी का मुखिया युद्ध के दौरान लूटे गए माल सामान मैं से सबसे अधिक हिस्सा लेकर ताकतवर हो जाता था।
ईरान के जैसे ही आदिवासी समाज को भी तीन दलों मे विभाजित किया गया था।
- योद्धा
- पुरोहित
- आम लोग
आदीवासी और परीवार
आर्यों को उनकी जाति से पहचाना जाता था। उनके जीवन में आदिवासी एक महत्वपूर्ण हिस्से पर थे। विस आगे ग्राम अथवा योद्धाओ से निर्मित छोटी आदिवासी इकाइयों में विभाजित था। दो ग्राम के बीच में होने वाली लड़ाई को संग्राम अथवा युद्ध के नाम से जाना जाता था। ऋग्वेद के अनुसार आर्यन परिवार के लिए कुल अथवा गृह शब्द का इस्तेमाल करते थे। परिवार के मुखिया को गृहपति कहेते थे। वे संयुक्त परिवार में रहते थे। आर्य में रोमन की तरह ही पितृसत्ता का अनुचरण कीया जाता था। जिसके कारण परिवार का मुखिया पिता होता था। अनेक परिवारों से बने समूह को विश और कबीले में रहने वाले लोगों को जन कहा जाता था।
आर्यों के समय में बेटे को बेटीयों से अधिक महत्व दिया जाता था। साथ ही बलिदान के वक्त उनके लिए प्रार्थना की जाती थी। उनके समय में महिलाए राजनीतिक सभाओ में हिस्सा ले सकती थी। साथ ही अपने पतियों के साथ बलिदान भी करती थी। महिलाओं का आदर करने में आता था। ऋग्वेद मे कहीं भी महिलाओं की कामना नहीं की गइ। उनके समय में महिलाओं को भी उच्च शिक्षा दी जाती थी।
ऋग्वेद के अनुसार आर्यों में एक से ज्यादा पति रखने का वैवाहिक नियम भी था। उनके समय में ऐसी अनेक घटनाएं देखी गई है जिसमें पति के देहांत के बाद उनके भाई से विवाह किया गया हो और विधवाओं को भी दूसरी बार विवाह करने का पूरा अधिकार प्राप्त था। साथ ही उनके समय में बाल विवाह के अस्तित्व का साक्ष्य मौजूद नहीं। उनके समय में अंतरजातीय विवाह भी हुआ करते थे।आर्यन 16 से 17 वर्ष की उमर में विवाह करते थे। इसका मतलब है की आर्यन विवाह वयस्क होने के बाद ही करते थे। दीर्घकाल तक अथवा आजीवन विवाह ना करने वाली महिला को आमाजु: कहा जाता था। नियोग प्रथा देखने को मिलती थी। आर्यों के समय में सती प्रथा देखने को नहीं मिलती थी। साथ ही पर्दा प्रथा का भी कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है।
आर्यों का भोजन और वस्त्र
आर्य छक कर दुध पीते थे। वे मक्खन और घी खुब अधिक खाते थे। आर्यन फल, सब्जियां, अनाज और मांस का खुराक ग्रहण करते थे। वह लोग मधु और कुछ प्रकार के पेय का सेवन करते थे। ऐक अतिविशिष्ट पेय, जिसे बनाना कठिन होने की वजह से उसे सिर्फ धार्मिक उत्सव में पिया जाता था। उसका पेय का नाम सोम था।
उनके पहनावे में तीन प्रकार के वस्त्रों का समावेश होता था। पहला और सबसे अंदर का निवी, दूसरा उसके ऊपर का वास और तीसरा पोशाक अधिवास जो टखना तक पहुंचती थी। आर्य लोग अपने सर पर पगड़ी बांधते थे। तैयार होने के लिए स्वर्ण और अन्य धातुओं के आभूषणों का उपयोग करते थे। महिलाएं अनेक प्रकार के मणि की मालाएं पहनती थी।
मनोरंजन
आर्य मनोरंजन के लिए रथों की दौड़ के खेल के साथ साथ नाच गाने का भी शौक रखते थे। उनको शिकार करने का बड़ा शौक था। वे लोग एक प्रकार की वीणा और ढोल को बजाते थे तथा महिलाएं उसके साथ गाती थी और नाचती थी। ऋग्वेद में जुआ के खेल की निंदा की गई है। परंतु आर्यो के समय में जुआ खेलना भी मनोरंजन का साधन था।
उत्तरकालीन वैदिक युग में सामाजिक जीवन
- उन दौरान समाज चार वर्णों में विभाजित हुआ करता था। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। वर्ण के आधार पर उनका कार्य निश्चित होता था। जन्म के साथ ही वर्ण निर्धारित होता था।
- गुरुओं के 16 वर्गों में से ब्राह्मण एक थे। परंतु बाद में अन्य संत दलों से भी श्रेष्ठ माने जाने लगे थे। यह वर्ग सभी वर्गों में से सबसे शुद्ध वर्ग कहा जाता था।
- क्षत्रिय वर्ग शासकों और राजाओं के वर्ग में शामिल थे। इस वर्ग का कार्य जनता की रक्षा करना और समाज में कानून व्यवस्था बनाए रखना था।
- वैश्य वर्ग में आम लोगों का समावेश होता था। इस वर्ग के लोग व्यापार, खेतीबाड़ी और पशुपालन जैसे कार्य करते थे। सामान्य रूप से यह वर्ग के लोग कर अदा करते थे।
- यद्यपि तीनों वर्ग में से शुद्र वर्ग को सभी प्रकार की सुविधाएं प्राप्त नहीं होती थी। उनके साथ भेदभाव किया जाता था।
- उस दौरान पैतृक धन पितृसत्तात्मक का नियम व्यापक था। जिसकी वजह से संपत्ति का वारिस बेटा होता था और महिलाओं को अधिकतर निचला स्थान प्राप्त होता था।
- उस वक्त गोत्र असवारन विवाह होते थे। जिसके चलते एक ही गोत्र के लोग आपस में विवाह नहीं कर सकते थे। वैदिक लेखों के आधार पर आर्य का जीवन चार चरण में समाप्त होता था: विद्यार्थी, गृहस्थ, वनप्रस्थ और सन्यासी।
Last Final Word
यह थी आर्यों की भौतिक और सामाजिक जीवन के बारे में संपूर्ण जानकारी। हम उम्मीद करते हैं कि हमारी जानकारी आपको फायदेमंद रही होगी। यदि इस आर्टिकल से संबंधित कोई सवाल आपके मन में रह गया हो तो हमें कमेंट के माध्यम से अवश्य बताइएगा।
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