अशोक सम्राट के उत्तराधिकारी और मौर्य साम्राज्य का पतन

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दोस्तों आज के इस आर्टिकल में हम अशोक सम्राट के उत्तराधिकारी और मौर्य वंश का पतन कैसे हुआ उसके बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे। आप इस आर्टिकल को ध्यान से पढ़ना ताकि इस विषय से संबंधित आपको जानकारी मिल सके।

भारत में अलग-अलग समय में अलग-अलग वंशो का साम्राज्य रहा है। जैसे कि गुप्त वंश, सूर्यवंश, कुषाण वंश, मेवाड़ वंश, मुगल वंश और मराठा साम्राज्य ने अपना शासन कायम किया था। भारत में चन्द्रगुप्त मौर्य, कृष्णदेवराय और पृथ्वीराज चौहान जैसे महान राजा हो चुके है। आज के आर्टिकल में हम अशोक सम्राट के उत्तराधिकारी के बारे में बात करेंगे और साथ अशोक सम्राट के मौर्य वंश का पतन कैसे हुआ था उसके बारे में जानकारी हासिल करेगे।

अशोक सम्राट के उत्तराधिकारी

प्राचीन समय के विश्व प्रसिद्ध और सबसे ज्यादा शक्तिशाली राजा में मौर्य वंश के अशोक सम्राट का नाम आता है। अशोक मौर्य वंश के तीसरे राजा थे। अशोक का शासन काल वर्ष 269 से लेकर 232 ईस्वी पुर्व तक का रहै है। मौर्य वंश के सभी राजाओं में अशोक एक ही था, जिसने अखंड भारत पर अपना शासन कायम किया था। अशोक ने भारत मैं मौर्य वंश की नींव रखी थी। अशोक सम्राट ने भारत के उत्तर में हिंदू कुश से लेकर गोदावरी नदी तक के विस्तार पर अपना शासन स्थापित किया था। साथ ही उसका शासन बांग्लादेश राज्य से पश्चिम के अफगानिस्तान और ईरान तक फैला हुआ था। अशोक ने अपनी कुशलता से मौर्य वंश को भारत के इतिहास में अमर कर दिया था।

अशोक की मृत्यु 232 ईसा पुर्व हुई थी। उनकी मृत्यु के बाद मौर्य वंश का शासन काल समाप्त होने की ओर आगे बढ़ गया। जिसकी वजह स्पष्ट रुप से अशोक के उत्तराधिकारी थे। अशोक के उत्तराधिकारी कमजोर थे। अशोक की मृत्यु के बाद के करीबन 50 साल में मौर्य वंश का साम्राज्य खत्म हो गया था। मौर्य वंश के समय के अभिलेखों से मालूम पड़ता है, कि अशोक के कई सारे पुत्र थे। परंतु सिर्फ उनके पुत्र तीवर और उसकी माता कारुवाकी का ही लिखो में उल्लेख मिल पाया है। ऐसा अनुमान लगाया जाता है, कि तीवर मगध के राजसिंहासन पर नहीं बैठा होगा। अशोक सम्राट ने महेंद्र को बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए श्रीलंका में भेजा था।  बौद्धिक साहित्य में महेंद्र का नाम अशोक के बेटे के स्थान पर लिखा गया है।

वायु पुराण के अनुसार अशोक के शासन काल के बाद कुषाण, बंधुपालित, इंद्रपालीत, देववर्मन, सतधनुष और बृहद्रथ का नाम देखने को मिलता है। इसी प्रकार विष्णु पुराण में सुयशस, दशरथ, संगत, शालीशुक, सोमशर्मन और बृहद्रथ का नाम देखने को मिलता है। अगर मत्स्य पुराण की बात करें तो दशरथ, संप्रति, शतधनु और बृहद्रथ तथा भागवत पुराण में सुयश, संगत, शालीशुक, सोमशर्मन, शतधन्वा और बृहद्रथ के नाम का उल्लेख किया गया है। अशोक के बाद दिव्यावदान में संप्रती, बृहस्पति, वृषसेन, पुण्यधर्मन् और पुष्पमित्र का उल्लेख प्राप्त होता है। कलियुगराजवृतांत के अनुसार अशोक के बाद सुपाश्र्व, बंधुपालित, इंद्रपालीत, शालीशुक, देववर्मा, शतधनु और बृहद्रथ का नाम प्राप्त होता है। जबकि तारानाथ ने अशोक के बाद कुषाण, विगताशोक और वीरसेन का नाम दीया है।

पुराणों में मिले उल्लेख के आधार पर अशोक की मृत्यु के बाद कुणाल राज सिंहासन पर बैठा था। राज चौधरी ने अनुमान लगाते हुए कहा है, कि भागवत पुराण तथा विष्णु पुराण में सुयशस नामक जीस शासक का वर्णन किया गया है, वह हकीकत में कुणाल ही है। राज चौधरी के अनुसार सुयशस कुणाल को दी गई उपाधि थी। दिव्यावदान के अनुसार उसे धर्मवीवर्धन कहा गया है। परंतु अशोक के और भी कई सारे पुत्र थे। राजतरंगिणी ने जालौक को कश्मीर का स्वतंत्र शासक बताया था। तारानाथ में उल्लेखित किया गया है, कि वीरसेन अशोक का पुत्र था और उसने गांधार पर स्वतंत्र रूप से शासन किया था। कुणाल अंधे होने की वजह से शासन करने के लिए समर्थ नहीं थे। जैन और बौद्ध के ग्रंथों में संप्रती को कुणाल का उत्तराधिकारी बताया है। कई सारी अनुश्रुतियों के आधार पर संप्रती ही कृणाल का उत्तराधिकारी था।

पुराणों तथा नागार्जुनी पहाड़ियों के गुफाओं में मिले शिलालेख के आधार पर दशरथ कुणाल का उत्तराधिकारी था। दशरथ को देवानांप्रिय की उपाधि मिली थी। दशरथ ने नागार्जुनी गुफाओं को आजीविकों को दान में दे दिया था। मत्स्य और वायु पुराण के अनुसार दशरथ अशोक का पौत्र था। इससे साबित होता है, कि दशरथ और संप्रति कुणाल के पुत्र और अशोक के पौत्र थे।

इन पुरावो के अनुसार अनुमान लगाया जाता है, कि मगध साम्राज्य दो हिस्सों में विभक्त हो गया था। दशरथ का आधिकारिक शासन साम्राज्य के पूर्वी विस्तार में और संप्रति का अधिकार साम्राज्य के पश्चिमी विस्तार में था। पुराणों के अनुसार दशरथ का शासनकाल 8 वर्ष का था।

संप्रति दशरथ के मृत्यु के बाद भी जीवित था। संभावना लगाई जाती है, कि पाटलिपुत्र पर संप्रति ने वापिस अपना अधिकार जमा लिया था। संप्रति ने जैन धर्म के लिए कई सारे कार्य किए थे। जिससे जैन साहित्य में संप्रति को वह स्थान मिला था, जो बौद्धिक साहित्य में अशोक को मिला था। जैन ग्रंथों मे संप्रति को त्रीखंडाधिपति के नाम से उल्लेखित किया गया है। जैन ग्रंथों के अनुसार संप्रती मौर्य शासकों में सर्वश्रेष्ठ था, क्योंकि उसके शासनकाल में मौर्य साम्राज्य का विकास चरम पर पहुँच गया था। संप्रति का शासनकाल पुराणों मैं मिले प्रमाणो के अनुसार 9 वर्ष का रहा था।

दशरथ और संप्रति के बाद विष्णु पुराण और गार्गी संहिता के अनुसार मौर्य साम्राज्य का शासक शालीशुक रहा था। दिव्यावदान के अनुसार संप्रति के पुत्र बृहस्पति ने शासन संभाला था। रायचौधरी ने शालीशुक और बृहस्पति को एक ही बताया था। गार्गी संहिता के अनुसार वह अत्यंत झगड़ालू स्वभाव का और धुर्त शासक था। उसने अपने शासनकाल में राज्य की प्रजा पर निर्दयतापुर्वक अत्याचार किए थे। अनुमान लगाया जाता है, कि देववर्मन और शोमशर्मन भी एक ही व्यक्ति के नाम थे। साथ ही शतधनुष और शतधन्वा एक ही थे। वृषसेन और पुण्यधर्मन् के बारे में ज्यादा जानकारी प्राप्त नहीं है।

पुराणों के साथ-साथ वरन हर्षचरित के अनुसार भी मगध के अंतिम शासक का नाम बृहद्रथ था। हर्षचरीत में बताया गया है, कि मगध के अंतिम सम्राट बृहद्रथ की हत्या उसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने सेना के सामने ही कर दी थी, और स्वयं मगध के सिंहासन पर बैठा था।

मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण

चंद्र मौर्य की महत्वाकांक्षा और अनवरत युद्ध, कौटिल्य नीतियो

तथा अशोक की बंधुत्व भावना की वजह से मौर्य साम्राज्य अशोक के शासनकाल में अपने चरमोत्कर्ष पर था। इतिहास के ग्रंथों के अनुसार मौर्य साम्राज्य अशोक के समय में एक इतिहास का निर्माण कर रहा था। परंतु अशोक की मृत्यु हो जाने के बाद विस्तृत मौर्य साम्राज्य अपनी समाप्ति की ओर बढ़ने लगा। आखिर में अशोक की मृत्यु के 50 वर्ष के बाद मौर्य साम्राज्य खत्म हो गया। मौर्य वंश के खंडहरो पर सातवाहन और शुंग वंश की नींव रखी गइ। थोड़े ही समय में विस्तृत मौर्य साम्राज्य का समाप्त हो जाना, एक ऐसी प्रक्रिया थी कि इतिहासकारों में इस घटना के कारण को जानने की जिज्ञासा स्वाभाविक थी। किस वजह से मौर्य वंश का पतन हुआ? क्या मौर्य वंश की समाप्ति की शुरुआत अशोक के शासनकाल से हुई थी? ऐसे कई सारे प्रश्नों के जवाब नीचे उल्लेखित किए गए हैं।

अयोग्य और दुर्बल उत्तराधिकारी

अशोक के अयोग्य और दुर्बल उत्तराधिकारी की वजह से मौर्य वंश का पतन हुआ था। मौर्य वंश तब तक ही सही तरीके से चल पाया था, जब तक योग्य शासक को ने शासन किया था। अशोक सम्राट के बाद अयोग्य और दुर्बल उत्तराधिकारी में शासन संगठन और संचालन करने की योग्यता बिल्कुल नहीं थी। जिसके कारण वह साम्राज्य की एकता बरकरार नहीं रख पाए। साहित्यिक स्त्रोतों से मालूम पड़ता है, कि अशोक का साम्राज्य उनके उत्तराधिकारीयो के अलग हो जाने से विभाजित हो गया था। राज तरंगिणी के अनुसार कश्मीर में जालौक ने अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित किया था। तारानाथ से पता चलता है, कि वीरसेन ने अपना स्वतंत्र राज्य गांधार प्रदेश में स्थापित किया था। साथ ही विदर्भ ने भी अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित किया कर लिया था। ऐसा अनुमान लगाया जाता है, कि सातवाहनों ने भी दकन में अपना स्वतंत्र राज्य बना लिया था। इस प्रकार अशोक के अयोग्य और दुर्बल उत्तराधिकारीयो के द्वारा अलग-अलग भागों पर स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की वजह से मौर्य वंश का पतन हुआ था।

चंद्रगुप्त मौर्य की जीत, कौटिल्य कूटनीति और अशोक सम्राट के आदर्श के रहते भी मौर्य वंश मे अर्ध स्वतंत्र राज्य बन चुके थे। जिसमें यवन, काम्बोज, भोज और आटवीक राज्य का समावेश होता है। केंद्रीय सत्ता के दुर्बल होने की वजह से प्रदेश स्वतंत्र हो गये थे। चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने सुसंगठित प्रशासन से और अशोक सम्राट ने नैतिकता पर आधारित धम्म से स्थानीय स्वतंत्रता की भावनाओं को कम करने का प्रयत्न किया था। परंतु अयोग्य और दुर्बल उत्तराधिकारीयो  ने अपने शासनकाल में इस भावना को ओर आगे बढ़ाया था। जिसके कारण मौर्य साम्राज्य ने विघटन की ओर अपना कदम बढ़ाया।

प्रांतीय शासकों के अत्याचार

हेमचंद्र राय चौधरी ने बताया था, कि मौर्य वंश के दूरस्थ विस्तारो के शासक अपने राज्य की प्रजा पर अत्याचार करते थे। दिव्यावदान के अनुसार बिंदुसार और अशोक के शासनकाल में तक्षशिला में विद्रोह हुआ था। दोनों ही बार उन्होंने अशोक और कुणाल से दुष्टामात्यो के खिलाफ शिकायतें की थी।

न वयं कुमारस्य विरुद्धा: नापि राज्ञो बिंदुसारस्य ।

अपितु दुष्टा: अमात्या: अस्माकं परीभवं कुर्वन्ति।।

अशोक के कलिंग अभिलेख से दिव्यावदान मे वर्णित उच्चाधिकारियों की दृष्टि की पृष्टी होती है। अशोक सम्राट ने कलिंग के उच्च अधिकारियों का संबोधन करके हुए कहा है, कि नागरिकों की नजरबंदी और उनको दी जाने वाली यातना बिना किसी कारण के नहीं होनी चाहिए। अशोक ने अपने इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए प्रति पांचवे वर्ष केंद्र का निरीक्षण करने के लिए उच्च अधिकारियों को राज्य में भेजता था। इसीलिए बिना किसी संदेह के यह कहा जा सकता है, कि अशोक ने इन उच्चाधिकारियों की कार्यविधि पर निरीक्षण रखा था। परंतु अशोक सम्राट के उत्तराधिकारीयो के शासनकाल में उच्च अधिकारी स्वतंत्र हो गए थे। जीसकी वजह से उन्होंने प्रजा पर अत्याचार करना शुरू कर दिया था। परवर्ती मौर्य वंश के शासकों मे शालीशुक का समावेश अत्याचार शासक में होता है। अशोक के उत्तराधिकारी के द्वारा होने वाले अत्याचार और उत्पीड़न की वजह से साम्राज्य की जनता मौर्य शासन से विद्रोह करने लगी और मौका मिलते ही कई सारे राज्यों ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी थी।

मौर्य साम्राज्य पतन के आर्थिक कारण

मौर्य साम्राज्य के पतन के लीए कई सारे विद्वानों ने आर्थिक कारणों को जिम्मेदार ठहराया है। उत्तरकालीन मौर्य वंश के शासनकाल की अर्थव्यवस्था संकटग्रस्त स्थिति में थी। साम्राज्य मे करो को बढ़ाने के लिए कई सारे उपाय किए गए थे। उनके शासनकाल में आहत सिक्कों में मिलावट होती थी। जिसकी वजह से उनके शासनकाल में अर्थव्यवस्था पर संकट की स्थिति बढ़ गई थी।

शासकों का मानना था कि विकसित अर्थव्यवस्था और राज्य के कार्य क्षेत्र के विस्तार के लिए करो कि वृद्धि होना स्वाभाविक है। इन शासकों के द्वारा लगाए गए कर अर्थशास्त्र के अनुरूप थे। आहत सिक्कों में मिलावट की वजह से सिक्के भारी मात्रा में जारी होने लगे और खास तौर पर उन प्रांत में भेजे जाने लगे जो साम्राज्य से विमुख हो गए थे। उस वक्त चांदी की ज्यादा मांग हुआ करती थी, जिसकी वजह से कहां जाता है, कि चांदी के सिक्कों में चांदी की मात्रा कम कर दी गई थी। हस्तिनापुर और शिशुपाल गढ़ की खुदाई के बाद मौर्य वंश के समय के जो अवशेष मिले हैं, उनसे मौर्य काल की विकसित अर्थव्यवस्था तथा भौतिक समृद्धि का परिचय मिलता है। परंतु यह मानना गलत होगा कि मौर्य वंश की अर्थव्यवस्था पर कोई दबाव नहीं था।

पतंजलि के अनुसार मौर्य साम्राज्य के शासकों ने कोष- वृध्धी के लिए जनता की धार्मिक भावनाओं को जागृत करने का प्रयत्न किया था। धार्मिक भावनाओं को जागृत करने के लिए मौर्य वंश के शासकों ने देवी देवताओं की मूर्तियों को बेचना शुरू कर दिया था। कई बार पड़नेवाले दुर्भिक्षों से आर्थिक संतुलन बिगड़ गया था। परिवर्ती काल मे दूरस्थ विस्तार के मौर्य साम्राज्य से विमुख हो जाने की वजह से केंद्रीय कोष में भारी प्रभाव पड़ा था। अशोक के द्वारा किए जाने वाले दान धर्म की वजह से मौर्य साम्राज्य की अर्थव्यवस्था उलट-पुलट हो गई थी। दिव्यावदान मे अशोक के दान धर्म से संबंधित कथाएं दी गई है। जिसकी पुष्टि दूसरे बौद्ध अनुश्रुतियों में भी मिलती है। परंतु कोई ठोस सबूत ना मिलने की वजह से आर्थिक कारणों को मौर्य वंश के पतन का कारण नहीं माना जा सकता।

विदेशी विचारों का अस्वीकार

निहाररंजन राय के अंतर्गत पुष्पमित्र की राज्यक्रांति मौर्य साम्राज्य में होने वाले अत्याचार के विरुद्ध तथा मौर्य वंश के शासकों के द्वारा अपनाए गए विदेशी विचारों का और विशेष रुप से कला के क्षेत्र में अधिकार के खिलाफ थी। इसका मतलब है कि सांची और भरहुत की कला जो लोक परंपरा से अनुकूलित और भारतीय थी, इस लोक कला से मौर्य अलग थे, और विदेशी कला से प्रभावित रहते थे। जनसाधारण के विद्रोह की दूसरी वजह निहाररंजन राय के अनुसार अशोक के द्वारा समाज का निषेध था। जिसके कारण मौर्य साम्राज्य की जनता अशोक के खिलाफ हो गई थी।

परंतु यह पता नहीं चल पाया है, कि निषेध अशोक के उत्तराधिकारीयो ने भी जारी रखा था या नही। मौर्य साम्राज्य की जनता के विद्रोह के लिए यह जरूरी था की अलग-अलग स्तरों पर संगठित होकर राष्ट्रीय रुप से जागृत हो ताकि जनता पुष्पमित्र के समर्थन में मौर्य साम्राज्य के द्वारा हो रहे अत्याचार के खिलाफ विद्रोह का समर्थन कर सके। परंतु इस प्रकार की जागृति की संभावनाए तत्कालीन परिस्थिति में नहीं आ आई।

प्रशासनिक व्यवस्था

रोमिला थापर के अनुसार प्रशासन का संगठन तथा राज्य और राष्ट्र की अवधारणा मौर्य वंश का पतन का कारण थी। उन्होंने मौर्य साम्राज्य के पतन के बारे में कहा था कि सैनिक अकर्मण्यता, ब्राह्मण का गुस्सा, सार्वजनिक विद्रोह और आर्थिक दबाव के आधार पर मौर्य वंश का पतन नहीं हो सकता था। उनके अनुसार शासन संगठन का अनेक स्वतंत्र राष्ट्र मे निर्माण और राष्ट्र की संकल्पना का अभाव होने से मौर्य वंश का पतन हुआ था। केंद्रीकृत प्रशासन की व्यवस्था योग्यता पर निर्भीत होती है। सम्राट ही वरिष्ठ पदाधिकारी की पसंदगी करता था। इन वरिष्ठ पदाधिकारियों की निष्ठा राज्य के प्रति होने के बदले सम्राट के प्रति होती थी। अशोक सम्राट की मृत्यु के बाद खासकर जब साम्राज्य का विभाजन हो रहा था तो केंद्र का नियंत्रण शिथिल हो गया था तथा एक एक कर सभी विस्तार मौर्य साम्राज्य से अलग होने लगे थे।

दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि मौर्य साम्राज्य के अधिकारी तंत्र खास रूप से प्रशिक्षित नहीं थे। प्रतियोगिता परीक्षा के माध्यम पर पसंद किए गए अधिकारी ही राजनीतिक हलचल होने के बावजूद शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए समर्थ हो सकते थे। कौटिल्य के शासन काल के अर्थशास्त्री में इस प्रकार की व्यवस्था देखने को मिलती थी। अर्थशास्त्र से स्पष्ट रूप से साबित होता है कि सभी उच्च कर्मचारी योग्यता के माध्यम पर चुने जाते थे। इसका अर्थ है कि परीक्षण के माध्यम पर अधिकारियों की पसंदगी करने की व्यवस्था जो मौर्य वंश के शासनकाल में थी, वह प्राचीन भारत अथवा मध्यकालीन भारत में कहीं देखने को नहीं मिली थी, और आधुनिक प्रतियोगिता परीक्षा पद्धति की परिकल्पना मौर्य काल में ऐतिहासिक दृष्टि से अनुचित है। शासन संगठन के विषय में माना जाता है कि राजा के कार्य पर यह ध्यान रखे, ऐसी प्रतिनिधि सभा का अभाव था, परंतु राज्य तंत्र पर निर्धारित सभी प्राचीन तथा मध्यकालीन राज्यों की यही विशेषता रही है। ऐसी परिस्थिति में प्रतिनिधि संस्था के अभाव को मौर्य साम्राज्य के पतन की वजह नहीं मानी जा सकती।

ऐसा माना जाता है कि मौर्य कालीन राजनीतिक व्यवस्था में राज्य की संकल्पना का भी अभाव था। राज्य की संकल्पना की जरूरत इसलिए होती है कि राज्य को राजा, शासन तथा सामाजिक व्यवस्था से ऊपर माना जाए। राज्य वह सत्ता है जिसकी वजह से हर व्यक्ति की शासन और समाज से ऊपर पूरी निष्ठा और भक्ति रहती है। मौर्य साम्राज्य का विस्तार काफी बड़ा था, जिसकी वजह से संपूर्ण मौर्य राज्य में समान रीती रिवाज, भाषा और परंपरा प्रचलित नहीं थी। मौर्य साम्राज्य में आर्थिक दृष्टि से ऊपरी भारत विकसित और समृद्ध था और दकन का प्रदेश अभिजीत और आर्थिक रूप से कमजोर था।

मौर्य साम्राज्य का अत्यधिक विस्तार

मौर्य साम्राज्य का विस्तार काफी बड़ा था, जिसके कारण सभी विस्तारो पर सरलता से नियंत्रण करना काफी मुश्किल काम था। जिसके कारण मौर्य साम्राज्य का विभाजन करने में आया। यह विभाजन मौर्य साम्राज्य के पतन का कारण बना। प्रशासनिक सुविधा को देखते हुए मौर्य साम्राज्य का विभाजन उचित था। परंतु इसके परिणाम मौर्य साम्राज्य के लिए घातक साबित हुए। प्रांतीय अधिकारियों को जब केंद्रीय शक्ति की दुर्बलता का पता चला तो उन्होंने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। इस घटना के बाद से मौर्य साम्राज्य मे अव्यवस्था फैल चुकी थी।

गृह कलह और दरबारी षड्यंत्र

परवर्ती मौर्य शासकों की गृह कलह तथा आपस की ईर्ष्या भाव से भी मौर्य वंश का पतन नजदीक आ गया था। इसका उदाहरण अशोक के शासन काल से ही मिलता है। जब उसने राधा गुप्त की मदद लेकर सुसीम को हटाकर सत्ता पर अपना अधिकार जमाया था। अशोक सम्राट की मृत्यु के बाद मौर्य साम्राज्य का विभाजन इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। मालविकाग्निमित्रम् के अनुसार बृहद्रथ के शासनकाल में राज दरबार में दो गुट हो गए थे। पहला सचिव गुट और दूसरा सेनापति गुट। अंत में सेनापति गुट के प्रमुख पुष्पमित्र शृंग ने सेना के सामने ही बृहद्रथ की हत्या करके सत्ता पर अपना अधिकार प्राप्त किया था।

अशोक का उत्तरदायित्व

मौर्य साम्राज्य के वतन के लिए कई सारे इतिहासकारों ने अशोक और उसकी नीतियों को जिम्मेदार ठहराया है। इन इतिहासकारों में से कुछ इतिहासकारों ने अशोक की ब्राह्मण विरोधी नीति को मौर्य साम्राज्य के पतन का कारण बताया है, तो कुछ ने उसकी अहिंसा वादी नीति को मौर्य साम्राज्य के पतन का कारण बताया है।

अशोक की ब्राह्मण विरोधी नीति

महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री के अनुसार अशोक की धार्मिक नीति मौर्य साम्राज्य के पतन का मुख्य कारण बनी थी। हरप्रसाद शास्त्री के अनुसार अशोक की धार्मिक नीति बौद्ध धर्म के पक्ष में थी और ब्राह्मणों के विशेष अधिकार और सामाजिक श्रेष्ठता की स्थिति पर कुठराघात करती थी। अशोक सम्राट के द्वारा पशु बलि पर प्रतिबंध लगाया गया था। जिसकी वजह से ब्राह्मण वर्ग अशोक से नाराज थे। क्योंकि ब्राह्मण पशुओं की बलि को यज्ञादी संपन्न करने के लिए महत्वपूर्ण कृत्य मानते थे। ब्राह्मण के द्वारा ही यज्ञ संपन्न होते थे और ब्राम्हण मनुष्य और देवताओं के बीच के मध्यस्थि थे। अशोक ने अपने रूपनाथ लघुस्तंभ लेख मे बताया है, कि उन्होंने ब्राह्मणों की मिथ्या को सिद्ध कर दीया है। ब्राह्मणों को भूदेव कहा जाता था। इस घटना के बाद से ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा कम हो गई थी।

अशोक पर आक्षेप लगाया गया था कि उसने जिस तरह बौद्ध धर्म का प्रचार किया था, वह ब्राह्मण धर्म के लिए एक चुनौती बन गया था। जिसके कारण ब्राह्मण वर्ग अपने आप को उपेक्षित महसूस करने लगे थे। शास्त्री जी का मानना है कि शक्तिशाली अशोक के शासनकाल तक ब्राह्मण वर्ग पर नियंत्रण बना रहा था। परंतु अशोक के मृत्यु के बाद परवर्ती मौर्य शासकों और ब्राह्मणों में संघर्ष की शुरुआत हो चुकी थी। जिसका उदाहरण पुष्पमित्र के विद्रोह से मिलता है।

हेमचंद्र राय चौधरी ने हरप्रसाद शास्त्री के अनुमानों की समीक्षा करके उसे निराधार साबित किया है। राय चौधरी के अनुसार अशोक ने पशु बलि पर संपूर्ण रूप से प्रतिबंध नहीं लगाया था। साथ ही ब्राह्मण ग्रंथों में भी यज्ञादी अवसर पर होने वाली पशु बलि के विरोध में आवाज उठने लगी थी। उपनिषदों और साहित्य में पशु बलि तथा हिंसा पर प्रतिबंध लगाया गया है। मुंडकोपनिषद के अनुसार यज्ञ टूटी हुई नौका के समान है। जो मूर्ख टुटी नौका को श्रेय मानकर उसकी प्रशंसा करता हे वह बारंबार जरामृत्यु को प्राप्त करता है।

यह मानना कि अशोक ने पृथ्वी के देवताओं की मिथ्या सिद्ध कर दी, उचित नहीं होगा। हकीकत में शास्त्री जी ने अशोक के रूपनाथ के लघु शिलालेख की पदावली का अर्थ गलत निकाला है। इस पदावली का अर्थ सिलवां लेवी के अंतर्गत यह होता है कि भारत के लोगों जो पहले देवताओं से विमुख थे, वे अब देवताओं से मिल गए है। इस पदावली में ब्राह्मणों के खिलाफ कुछ भी नहीं लिखा गया। इसी तरह धम्म महामात्रो के दायित्व में भी ब्राह्मण विरोधी उल्लेख देखने को नहीं मिला। अशोक ब्राह्मण और श्रमण सभी के कल्याण से जुड़े थे। न्यायाधिकारी को जो अधिकार दिए गए थे वे ब्राह्मणों के अधिकारों पर आघात करने के लक्ष्य से नहीं, परंतु दंड विधान को ओर भी ज्यादा लोगों के हितों के लिए और माननीय बनाने के लिए दिए गए थे। अशोक के तीसरे चौथे और पांचवें लेख से स्पष्ट होता है कि वह ब्राह्मणों का आदर करता था। यहां तक की इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिला है कि अशोक में बौद्ध धर्म को संरक्षित किया था। परवर्ती मौर्य शासकों और ब्राह्मणों के बीच संघर्ष कि कोई पूर्ति नहीं हो पाई है। राज तरंगिणी से पता चलता है की कश्मीर के शासक और ब्राह्मणों के बीच अच्छे संबंध थे। इस बात की पुष्टि सेनापति के पद पर पुष्पमित्र की नियुक्ति से होती है।

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि सेनापति पुष्यमित्र शुंग के विद्रोह को ब्राह्मणों के द्वारा संगठित क्रांति नहीं कहा जा सकता। इतिहासकारों के अनुसार यह एक सैनिक क्रांति थी जिसका धर्म से कोई संबंध नहीं था। वास्तव में पुष्यमित्र शुंग की राज्य क्रांति की वजह असंतुष्ट ब्राह्मणों के समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं था बल्कि सेना पर पूर्ण अधिकार रखने वाले सेनापति की महत्वाकांक्षा थी। नीलकंठ शास्त्री ने बताया है कि अशोक की बौद्ध नीति संकीर्ण नहीं थी। अशोक की धार्मिक नीति विश्वासपत्र सहिष्णुता और विविध धर्मों में मैत्री के संबंध स्थापित करने की थी। सेना में पुष्पमित्र को नियुक्त करने से यह सिद्ध होता है कि परवर्ती मौर्य शासको ब्राह्मणों को प्रतिक्रियावादी नहीं मानते थे। मालविकाग्निमित्रम् के अनुसार बृहद्रथ की हत्या राज दरबार की गुटबंदी के कारण हुई थी।

अशोक की शांति और अहिंसा की नीति

आर.डी.बनर्जी, आर.के.मुकर्जी, राय चौधरी और एन.एन घोष जैसे इतिहासकारों के आधार पर अशोक सम्राट की शांति और अहिंसा की नीति ने मौर्य साम्राज्य के पतन में विशिष्ट भूमिका निभाई है। बनर्जी का कहना है कि अशोक के आदर्शवाद और धार्मिक तिथि से अनुशासन प्रभावित हुआ था।

भंडारकर के अनुसार विजय के स्थान पर धम्म विजय की नीति अपनाने का अंजाम आर्थिक दृष्टि से शानदार होते हुए भी राजनीतिक दृष्टि से नुकसान भरा सिद्ध हुआ। राय चौधरी भी इस बात से सहमत है कि अशोक की शांतिवादी नीति ने मौर्य साम्राज्य के सैन्य शक्ति को कमजोर कर दिया था और दुर्बल सैन्य से यवनो के आक्रमण का सामना नहीं कर पाए थे। अशोक ने अपने चौथे शिलालेख में स्वयं कहा है कि मौर्य साम्राज्य में अब भेरी-घोष धम्म-घोष मैं तब्दील हो गया है। एन.एन. घोष का कहना है कि कलिंग युद्ध के बाद अशोक में रणचंडी के आह्वान की परंपरा को त्याग कर दिया था। राधाकुमुद भी इस बात से सहमत हैं कि मौर्य साम्राज्य के पतन में अशोक की धार्मिक नीति का महत्वपूर्णण योगदान रहा है। परंतु इस कारण से ही मौर्य साम्राज्य का पतन हुआ है ऐसा कहना गलत होगा।

Last Final Word

मौर्य साम्राज्य के पतन के मुख्य कारण देखे जाए तो ऊपर बताए गए आरोपो का कोई आधार प्रतीत नहीं होता है। क्योंकि उसकी बौद्ध नीति शांतिवादी नीति थी, इस बात का कोई ठोस सबूत नहीं मिल पाया है। अगर अशोक सम्राट इतना अहिंसा वादी और शांतिप्रिय होता तो उसने मौर्य साम्राज्य में मृत्युदंड की सजा पर प्रतिबंध लगा दिया होता। अशोक के अभिलेखों से मालूम पड़ता है कि उसकी सैन्य शक्ति सुदृठ थी। अशोक के 13वें शिलालेख मे वह सीमांत विस्तार के लोगो तथा जंगली जनजातियों को स्पष्ट चेतावनी देता है कि वह सिर्फ उन्हें ही माफ कर सकता है जो माफी के काबिल होता है। अशोक ने कभी भी अपनी सेना का भंग नहीं किया था और ना ही उनका अनुशासन कम हुआ था। वास्तव में अशोक अपने पिता और पितामह की रक्त तथा लौह की नीति का पालन करता तो भी मौर्य साम्राज्य का पतन निश्चित था। इस तरह स्पष्ट होता है कि अशोक की शांति और अहिंसा की नीति को मौर्य साम्राज्य के अध:पतन के लिए जिम्मेदार माना जा सकता है।

यह थी अशोक के उत्तराधिकारी और मौर्य साम्राज्य के पतन के बारे में जानकारी। उम्मीद है आपको हमारी जानकारी फायदेमंद रही होगी। अगर अभी भी आपके मन में कोई प्रश्न और हो गया हो तो हमें कमेंट के माध्यम से अवश्य बताइए।

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