दोस्तों आज के इस आर्टिकल में हम भारत की गुप्तकालीन कला और स्थापत्य के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे। इस आर्टिकल को ध्यान से पढ़ना ताकि गुप्तकालीन कला और स्थापत्य से संबंधित आपके सभी सवालों के जवाब आपको मिल सके।
गुप्तकाल का विकास भारत में गुप्त साम्राज्य के शासनकाल के दौरान 200 से 325 ईस्वी में हुआ था। गुप्तकालीन कला से संबंधित वास्तु, स्थापत्य, चित्रकला और मृदभांड इत्यादि जैसे अलग-अलग विधाओ का विकास देखने को मिलता है। गुप्तकालीन स्थापत्य कला की वास्तुकृतीयो में मंदिर के निर्माण का ऐतिहासिक महत्व रहा है। इसी कारण गुप्तकालीन स्थापत्य कला के श्रेष्ठ उदाहरण में उस वक्त के मंदिर का समावेश कीया जाता है।
गुप्तकालीन वास्तुकला
गुप्तकालीन वास्तु कला में सात भागो का समावेश किया गया है। सात भागों में राजप्रसाद, आवासीय गृह, गुफाएं, मंदिर, स्तुप, विहार तथा स्तम्भ का समावेश होता है।
फाह्यान जो चीन से भारत की यात्रा करने के लिए आए थे, उन्होंने अपने विवरण में गुप्तकालीन राजप्रसाद की अत्यंत प्रशंसा की है। गुप्तकालीन समय में घरों मे कमरे, दालान और आंगन हुआ करते थे। घर की छत पर जाने के लिए सोपान की रचना की जाति थी। रात्रि के समय रोशनी के लिए रोशनदान भी बनवाया जाता था। जिन्हे वातायन के नाम से भी जाना जाता है। गुप्त काल के समय में ब्राह्मण धर्म की प्राचीनतम गुहा भिलसा के नजीक उदयगिरि की पहाड़ी में आई है। इस गुहा का निर्माण चट्टान को काटकर किया गया है।
गुप्तकाल के दौरान मूर्तिकला के मुख्य केंद्र मथुरा, सारनाथ और पाटलिपुत्र थे। मूर्तिकला की विशेषता यह थी कि मूर्तियों में भद्रता, शालीनता, सरलता और आध्यात्मिकता जैसे भावों की स्पष्ट अभिव्यक्ति के कारण मूर्तियां स्वाभाविक लगती थी। इसी समय में भारत के कलाकारों ने अपनी विशिष्ट मौलिक और राष्ट्रीय शैली का निर्माण किया था। भारतीय कलाकार मूर्ति का आकार, केशराशि, माँसपेशियाँ, चेहरे की बनावट, प्रभामण्डल, मुद्रा और स्वाभाविकता जैसे तत्व को ध्यान में रखकर मूर्ति का निर्माण करते थे।
गुप्तकालीन में बुद्ध मूर्तियां 5 मुद्राओं में निर्मित होती थी। जैसे कि, ध्यान मुद्रा, भूमिस्पर्श मुद्रा, अभय मुद्रा, वरद मुद्रा और धर्म चक्र मुद्रा। गुप्तकाल को चित्रकला का स्वर्ण युग भी कहा जाता है। कालिदास ने अपनी रचनाओं में चित्रकला के विषय से संबंधित अनेक प्रसंगो का उल्लेख किया है।
गुप्त काल में उदयगिरि की अतिरिक्त अजंता, एलोरा, औरंगाबाद और बाघ की गुफा का निर्माण हुआ था
गुप्तकालीन गुफा वास्तु
उदयगिरि की गुफाएँ
गुप्तकालीन शैवकृत गुफा वास्तु में ब्राम्हण गुहा मंदिर और बौद्ध गुहा मंदीर विशिष्ट स्थान पर है। गुफा वास्तु में उदयगिरि का नाम मुख्य स्थान पर है। उदयगिरि की ज्यादातर गुफाएं वैष्णव और शिव धर्म से जुड़ी हुई थी। इन गुफाओं का निर्माण चंद्रगुप्त द्वितीय और कुमारगुप्त प्रथम के समय में किया गया था। सभी गुफाएं चट्टानों को काट कर बनाई गई थी। चंद्रगुप्त द्वितीय के सेनापति वीरसेन का लीखा हुआ एक पत्र उदयगिरि की पहाड़ी से मीला है, जीससे मालूम पड़ता है कि शैव गुहा उसने बनवाइ थी। उदयगिरि की वैष्णव गुहा में अलग-अलग देवी देवताओं की मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गई है। विष्णु भगवान को सम्मान देने के लिए प्रख्यात वराह गुहा का निर्माण किया गया है। कई सारे विद्वानो ने उदयगिरि की गुफाओं को मिथ्या गुहा की उपाधि दी है।
अजंता की गुफाएँ
बोद्ध गुहा मंदिर में अजंता की गुफाएँ और बाघ की गुफाएँ आवश्यक है। अजंता में कुल 19 गुफा का निर्माण किया गया है। इसमे चार चैत्यगृह और शेष विहार है। अजंता की गुफाओं का निर्माण कार्य ईस्वी पुर्व, दूसरी शताब्दी से लेकर सातवीं शताब्दी तक चला था। शुरुआत की गुफाएं हीनयान और बाद की गुफाएं महायान संप्रदाय से जुड़ी है।
अजंता की तीन गुफाएँ 16, 17 और 19 गुप्तकालीन में बनायी गइ थी। 16 और 17 नंबर की गुहा विहार और 19वीं चैत्य है। 16वीं और 17वीं गुफाओं का बांधकाम शताब्दी के अंतिम चरण में वाकाटक नरेश हरीषेण नाम के एक सामंत ने करवाया था। 16वीं गुफा का गुहा मंदिर लंबाई और चौड़ाई में 62 फुट का है, और इसमें 20 स्तम्भ आए हुए हैं। इस चैत्यगृह मे प्रलंबपाद मुद्रा में बुद्ध भगवान की विराट प्रतिमा है। 17वीं गुफा में स्तंभ, स्तुप और बुद्ध की प्रतीमा रखी गई है। इस गुफा की बरामदे की दीवार पर जीवन-चक्र चीत्रीत कीया गया है। जीसकी वजह से पहेले इसे राशी-चक्र गुहा के नाम से जाना जाता था। 19वी गुफा एक चैत्यगृह है, जिसमें सिर्फ एक ही प्रवेश द्वार है। और गर्भगृह, गलीयारा और स्तंभ आए है। मंडप के दोनो तरफ प्रदक्षिणा मार्ग पर 17 पंक्तिबद्ध स्तंभ का निर्माण किया गया है। मुख्य भाग को सुशोभित करने के लिए काष्ठ का इस्तेमाल नहीं करने मे आया। प्रवेश द्वार की छत चपटी है, और चार स्तंभों के आधार पर टिकी हुई है। जिसके ऊपर बड़े आकार का चैत्य गवाक्ष बनाया गया है। भिती स्तंभ के मध्य भाग में भगवान बुद्ध की प्रतिमा स्थापित की गई है। साथ ही यक्ष, नाग-दंपति, शालभंजीका और ऋषि-मुनियों की आकृतियाँ बनाई गई है। यह गुफा पश्चिमी भारत की श्रेष्ठतम चैत्य गुहा है।
बाघ की गुफाएँ
अजंता के ठीक सामने बाघ पहाड़ी पर, जो मध्य प्रदेश में है वहां 9 गुफाएँ मिली है। बाघ की गुफाओं में भी बुद्ध भगवान के जीवन चरित्र को तथा जातक कथाओं को अंकित किया गया है। इस गुफा का पहला वीहार खत्म हो चुका है, परंतु दूसरा सुरक्षित है। दूसरे हिस्से को पांडव गुफा के नाम से जाना जाता है। इस गुफा के मध्य में चौकोर आँगन और कमरे हैं। बरामदे के ताखो मे मूर्तियां स्थापित की गई है। तीसरी गुफा का नाम हाथीखाना और चौथी गुफा का नाम रंगमहल है।
गुप्तकालीन मंदिर वास्तु
हमने आगे देखा कि गुप्तकाल के स्थापत्य कला के महत्वपूर्ण उदाहरण में उस वक्त के मंदिर का समावेश होता है। ऐसा माना जाता है कि मंदिर निर्माण की कला का जन्म गुप्तकालीन में हुआ था।
गुप्तकालीन समय में मंदिर का निर्माण छोटी-छोटी ईटो और पत्थरों से किया जाता था। भीतरगांव का मंदिर इंटो से बना है। अधिक संख्या में मूर्ति और मंदिर के स्थापना के द्वारा आकार लेने वाली इस कला का विकास मौलिक तत्व के साथ हुआ था। इस दौरान मंदिर का निर्माण ऊंचे चबूतरे पर किया जाता था। चबूतरे पर चडने के लिए चारों तरफ से सीढ़ियों का निर्माण करने में आता था। देवता की मूर्ति को जीस खंड में स्थापीत कीया जाता था, उसे गर्भगृह के नाम से जाना जाता था। गर्भगृह के चारों तरफ ऊपर से आच्छादित प्रदिक्षणा मार्ग का निर्माण करने में आता था। गुप्तकालीन समय के मंदिरों पर गंगा, यमुना, सींह मुख, पुष्पपत्र और शंख की आकृति बनाई जाती थी। इन मंदिरों की छते प्राय: सपाट रखें रखी जाती थी, परंतु कई बार शिखर युक्त मंदिरों के निर्माण के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
मंदसौर लेख के आधार पर दशपुर के मंदिरों में कई सारे आकर्षक शिखर थे।
गुप्तकाल के विशिष्ट मंदिरों में उत्तर प्रदेश के ललितपुर में स्थित देवगढ़ का दशावतार मंदिर, मध्य प्रदेश का सांची का मंदिर, मध्य प्रदेश के जबलपुर में स्थित तिगवा का विष्णु मंदिर, नचना कुठारा का पार्वती का मंदिर जो मध्य प्रदेश में स्थित है, भूमरा शिवजी का मंदिर, कानपुर उत्तर प्रदेश का भीतरगांव का इटो बना मंदिर, सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर, लाड़खान का मंदिर और राजस्थान के कोटा शहर में स्थित मुकुंद दर्रा के मंदिर का समावेश होता है।
देवगढ़ का दशावतार मंदिर
गुप्तकालीन मंदिरों में देवगढ़ का मंदिर श्रेष्ठ उदाहरण है। देवगढ़ का मंदिर उत्तर प्रदेश के ललितपुर में स्थित है। इस मंदिर का ऊपर का भाग विखंडित हो गया है। मंदिर में आकर्षक और कलापूर्ण गर्भगृह का प्रवेश द्वार है। इस मंदिर का शिखर 12 मीटर ऊंचा है। सामान्य रूप से दूसरे मंदिरों में सिर्फ एक मंडप होता था, परंतु दशावतार के मंदिर में चार मंडपो का निर्माण किया गया है। देवगढ़ का मंदिर सुंदर मूर्तियां से बना हुआ है। शेषशायी, विष्णु, गजेंद्र मोक्ष, रामावतार और कृष्णावतार से जुड़े चित्र अंकित किया गया है। झाँकती हुई आकृतियाँ, उड़ते हुए पक्षी, पवित्र वृक्ष, स्वास्तिक, फूल-पत्तियाँ, प्रेमी युगल और बौनो इत्यादि जैसी आकर्षक मूर्तियाँ भी स्थापित है।
साँची का मंदिर
साँची का मंदिर मध्य प्रदेश के रायसेन में स्थित है। इस मंदिर को ‘मंदिर संख्या सत्तरह’ के नाम से जाना जाता है। साँची मंदिर का निर्माण दक्षिण पूरब की ओर किया गया है। गुप्तकाल के इस मंदिर का आकार छोटा है, छत सपाट है, गर्भगृह चौकोर है, और इसके सामने छोटा स्तंभ युक्त मंडप आया हुआ है। इस स्तंभ में घंटाकृती और शिर्ष आए है।
तिगवा का विष्णुमंदिर
तिगवा का विष्णुमंदिर मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले में आया हुआ है। तीगवा के मंदिर के गर्भगृह का व्यास करीबन 7-8 फुट का है। इस मंदिर में चार स्तंभ आए हैं। जिस पर 7 फुट का छोटा मंडप टिका हुआ है। साथ ही स्तंभ पर सिंह की मूर्तियां आयी है। इसके प्रवेश द्वार पर कुर्मवाहिनी यमुना और मकरवाहिनी गंगा अंकित है।
नचना कुठार का पार्वती मंदिर
मध्यप्रदेश के पन्ना में नचना कुठार का पार्वती मंदिर आया हुआ है। इस मंदिर का निर्माण वर्गाकार चबूतरे पर किया गया है। चबूतरे पर चढ़ने के लिए चारों तरफ से सीढ़ियां बनाई गई है। गर्भगृह के चारों तरफ ढका हुआ प्रदक्षिणा पथ बनाया गया है। गर्भगृह के सम्मुख स्तंभ युक्त मंडप आया हुआ है, और गर्भगृह की दीवारें अलंकारों से सजाई हुई है।
भूमरा का शिव मंदिर
भूमरा का शिव मंदिर मध्यप्रदेश के सतना जिले में आया हुआ है। इस मंदिर का सिर्फ गर्भगृह अवशिष्ट है। गर्भगृह के अंदर एक मुख वाली शिवलिंग स्थापित की गई है। इसके प्रवेश द्वार पर कुर्मवाहिनी यमुना और मकरवाहिनी गंगा अंकित है। गर्भगृह के समक्ष मंडप और चारों तरफ प्रदक्षिणा पथ बना हुआ है।
सतना जिले के पिपरिया नामक स्थान से वर्ष 1968 मे कृष्णदत्त वाजपेयी को एक विष्णु मंदिर और मूर्ति मीली थी। गर्भगृह के द्वार पर वाराह तथा नवग्रह अंकित है। द्वार स्तंभो तथा सिरदल पर पूर्णघट, पत्रावली, नगर मुख और व्याघ्रमुख बना हुआ है। विष्णु की प्रतिमा मंदिर के समीप मिली है। मध्य प्रदेश ऐरण में वराह और विष्णु के मंदिर मिले हैं। मध्यप्रदेश के सतना जिले के खोह के शीव मंदिर में शुभ गणों की मूर्तियां स्थापीत है ।
भीतरगांव का मंदिर
उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले में भीतरगांव का मंदिर आया हुआ है। भीतरगांव का मंदिर विष्णु भगवान का मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण वर्गाकार चबूतरे पर किया गया है। मंदिर के वर्गाकार गर्भगृह के सामने मंडप है। देवगढ़ की तरह भीतरगांव का मंदिर भी शिखर युक्त है। शिखर की ऊंचाई करीबन 70 फुट की है। शिखर पर चैत्याकार मेहराब बने हुए है। इसकी बाहर की दीवार पर गणेश, वराह और दुर्गा की मुणडमूर्तियां आई हुई है। दीवारों पर रामायण, महाभारत और पुराणों की अलग-अलग आख्यान को अंगीकृत किया गया है।
सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर
ईंटो से बना हुआ सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर छत्तीसगढ़ में स्थित है। इस मंदिर का शिखर भितरगांव के मंदिर के शिखर से साम्यता रखता है। इस मंदिर के तोरण के ऊपर शेषशायी विष्णु की मूर्ति रखी गई है, जिसकी नाभि में कमल पर ब्रह्मा भगवान बिराजित है, तथा विष्णु के चरणों में लक्ष्मी जी आसीन है। लक्ष्मण की मूर्ति पांच फनो वाले शेषनाग के शिर्ष पर रखी गई है। लक्ष्मण मंदिर का सिर्फ गर्भगृह अवशिष्ट है।
मुकुंद दर्रा मंदिर
मुकुंद दर्रा का मंदिर राजस्थान के कोटा में आया हुआ है। इस मंदिर का गर्भगृह चार स्तंभों पर टिका हुआ है। इस मंदिर को प्रारंभिक गुप्त देवालय का उदाहरण कहा जा सकता है। यह मंदिर को आयताकार चबूतरे पर बनाया गया है उस पर चढ़ने के लिए सीढि़याँ बनाई गई है।
बौद्ध मंदिर और स्तुप
बौद्ध मंदिर सांची और बोधगया में प्राप्त हुआ है। गुप्तकाल के दो बौद्ध स्तुप के अवशेष प्राप्त हुए हैं। पहला सारनाथ का धमेख स्तूप है। इस स्तूप की ऊंचाई 128 फीट है। इसका निर्माण ईटों से किया गया है। दूसरा स्तुप राजगृह का जरासंघ की बैठक का है।
धमेख स्तूप समतल भूमि पर बनाया गया है, और इसके चारों कोनों पर बौद्ध भगवान की मूर्तियां स्थापित करने के लिए ताखे बनाए हैं। स्तूप पर रहे लतापत्रक और ज्यामितीय आकृतियाँ अत्यंत आकर्षक है।
प्रारंभिक गुप्तकाल में सिंधु में मीरपुर खास के स्तुप को बनाया गया होगा। स्तूप में तीन छोटे चैत्य बने हुए हैं। मुख्य चैत्य की मेहराब ईंटो का इस्तेमाल करके बनाई गई है।
उड़ीसा के रत्नागिरी में भी स्तूप मिले हैं। नालंदा में 300 फीट ऊंचा विशाल बुद्ध मंदिर आया हुआ है। जिसका निर्माण नरसिंहगुप्त बालादित्य ने करवाया था। परंतु वर्तमान समय में यह मंदिर संपूर्ण विखंडित हो गया है। पांचवी शताब्दी के निर्मित मंदिरों में बोधगया का मंदिर महत्वपूर्ण है। इस मंदिर के गर्भगृह मे विराट बुद्ध प्रतिमा भूमि स्पर्श मुद्रा में स्थापित की गई है।
गुप्तकालीन मूर्ति कला
लकड़ी, हाथी दांत और अन्य सामग्री को कलात्मक कुशलता से अलग-अलग रूपों में परिवर्तीत कर देने की महत्वपूर्ण कला का विकास गुप्तकाल में हुआ था। इस समय में मथुरा, सारनाथ और पाटलिपुत्र भारतीय आकारमुलक अभिव्यक्ति के मुख्य केंद्र रहे थे। गुप्तकाल की मूर्तियाँ भद्रता, शालीनता, सरलता, आध्यात्मिकता के भावों की अभिव्यक्ति और अनुपातिक संतुलन जैसे गुणों की वजह से स्वाभाविक लगती थी। गुप्तकाल में सबसे ज्यादा मूर्तियां हिंदू देवी-देवताओं से जुडी़ होती थी। इस समय के दौरान विष्णु, शिव, सूर्य, गणेश, स्कंद, कुबेर, लक्ष्मी, पार्वती, दुर्गा और सप्तमातृकाएँ जैसे अलग-अलग देवी-देवताओं की, और बुद्ध, बोधीसत्त्व और जैन तीर्थंकरों की प्रतिमा का निर्माण किया जाता था। गुप्त काल की मूर्तियोंं मे कृष्णाकालीन नग्नता और कामुकता लुप्त हो गए थी।
गुप्तकाल के मूर्तिकारो ने शारीरिक आकर्षण को छुपाने के लिए मोटे उत्तरीय वस्त्रों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था, जिसकी वजह से गुप्तकालीन मूर्तियों में अत्यंत आध्यात्मिकता, भद्रता और शालीनता दिखाई देती है। गांधार कला का प्रभाव सारनाथ केंद्रो की मूर्तियों पर नहीं पड़ा था।
वैष्णव मूर्तियाँ
भारत में वैष्णव धर्म विकसित होने की वजह से वैष्णव मूर्तियां बनना स्वाभाविक था। विष्णु को मानव अवतार का रुप देकर मूर्तियाँ बनायी गयी। जुनागढ़ के लेख के आधार पर चक्रपालीत ने एक विष्णुमंदिर को बनवाया था। भितरी स्तंभ लेख मे बताया गया है, की स्कंदगुप्त के काल मे विष्णु मूर्ति का निर्माण कीया गया है। उस समय एरण, देवगढ़ और मथुरा मे विष्णु की चतुर्भुजी मूर्तियाँ बनायी जाती थी। मथुरा के कलाकारो ने विष्णु की नइ मूर्ती बनायी। यह मूर्ती आसन पर वीराजमान, बाये हाथ मे चक्र ओर शंख तथा दायें हाथ में गदा है। प्रलंबबाहु मूर्ती का सिर्फ धडभाग ही अवशिष्ट है। इस चतुर्भुजी मूर्ति में मूंगट, कानों के कुंडल और भुजाओ पर लटकती हुई वनमाला अलंकृत की गई है। इसके जैसे ही दूसरी दो त्रिविक्रम स्वरूप की विष्णु की प्रतिमाएं मथुरा संग्रहालय में रखि है। संभवत: कलाकार ने वामन अवतार विष्णु के पाद- प्रक्षेपो के माध्यम से पृथ्वी और अंतरिक्ष लोक को नापने की घटना को, मूर्ति का रूप देने की कोशिश की है।
देवगढ़ के दशावतार के मंदिर में विष्णु की सुप्रसिद्ध प्रतिमा आई हुई है। देवगढ़ के मंदिर की तीनों दीवारों के बीच में एक-एक चौकोर मूर्तिपट्ट लगाया गया है। मंदिर की दक्षिण दिशा के पट्ट में विष्णु भगवान को शेषनाग की शैय्या पर आराम करते हुए दर्शाने में आए हैं। भगवान विष्णु के नाभी से निकलते हुए कमल पर ब्रह्मा, ऊपर आकाश में नंदी पर सवार शिव पार्वती, मयूर पर सवार कार्तिकेय और एरावत पर इंद्र को दर्शाया गया है। विष्णु भगवान के पास में बैठी हुई लक्ष्मी जी उनके पैर दबा रही है। आसन के नीचे पांच पुरुष और एक स्त्री को अंकित किया गया है। इनकी तुलना पांडवों से की जाती है। आक्रामक मुद्रा में मधु और कैटभ नाम के राक्षसो को प्रदर्शित किया गया है। कनींघन के अनुसार मूर्तियों का चित्रांकन सामान्य रूप से ओजपूर्ण है, और अनंतशायी विष्णु का रेखांकन ना सिर्फ सहज, अपितु मनोहर है और मुद्रा गौरवपुर्ण है। पूर्वी पट्ट में नर नारायण का तपस्या करने वाला दृश्य, और उत्तरी पट्ट में गजेंद्र मोक्ष का दृश्य बनाया गया है। काशी में मिली गोवर्धन पर्वत को गेंद के रूप में उठाए हुए कृष्णा की प्रतिमा, अत्यंत आकर्षित करने वाली है।
गुप्त काल में विष्णु के वराह अवतार की कई सारी मूर्तियां बनाई गई थी। भगवान विष्णु की उदयगिरि से मिली विराट वराह प्रतिमा में शरीर मनुष्य के जैसा, और मुख वराह का है। मुख्य भाग के वराह ने पृथ्वी को दांत से उठाया हुआ है। वराह स्वरूप के विष्णु भगवान का बाया पैर शेषनाग पर रखा गया है। पृष्ठभूमि पर पाषाण-भित्ती पर देवताओं और ऋषि-मुनियों की आकृतियां अंकित की गय है। गरुड़ की आकृति शेषनाथ के पास अंकित की गई है।
मातृविष्णु के भाई धान्यविष्णु ने मराठी वास्तविक आकार में बनी हुई मूर्ति का निर्माण करवाया था। यह मूर्ति एरण में से मिली है। इस मूर्ति पर हुण नरेश तोरमाण का लेख अंकित किया गयाा है। इसके प्रवेश द्वार पर कुर्मवाहिनी यमुना और मकरवाहिनी गंगा अंकित है।
शैव मूर्तियाँ
गुप्त काल में शैव मूर्तियाँ मानवीय और लींग दोनों के रुप में प्राप्त होती थी। इस समय में पहली बार भगवान शिव के एकमुखी और चतुर्मुखी शिवलिंग का निर्माण हुआ था। इन मूर्तियों को मुखलींग के नाम से जाना जाता था। ऐसी मूर्तियां मथुरा, भीटा, कोशांबी, करमदंडा, खोह और भुमरा मैं से प्राप्त हुई है। कमरदंडा में से कुमारामात्य पृथ्वीषेण के द्वारा निर्मित चतुर्मुखी शिवलिंग की मूर्ति मिल गई है। खोह में से शिव भगवान की एकमुखी शिवलिंग की प्रतिमा मिली है। गुप्तकाल में शिव भगवान के अर्धनारीश्वर रूप की मूर्तियां बनाई गई थी। अर्धनारीश्वर रूप की दो मूर्तियां प्राप्त हुई है, जो मथुरा संग्रहालय में रखी गई है। इस अर्धनारीश्वर रूप की मूर्ति में दाहिना भाग पुरुष का, और बाया भाग स्त्री का है। विदिशा से भगवान शिव की हरि हर रूप की मूर्ति प्राप्त हुई है, जिसको दिल्ली संग्रहालय में रखा गया है।
बौद्ध मूर्तियाँ
गुप्तकाल में बुद्ध की मूर्तियां अपनी सजीवीता और मौलिकता की वजह से विशिष्ट उदाहरण थी। दक्षिण पूर्व एशिया और मध्य एशिया की कला पर गुप्तकालीन बौद्ध तक्षण कला का प्रभाव परिलक्षीत होता दिखाय देता है।
गुप्त काल में बनने वाली बुद्ध की मूर्तियाँ पांच मुद्राओ में देखने मिलती थी। 5 मुद्राओं में ध्यान मुद्रा, भूमिस्पर्श मुद्रा, अभय मुद्रा, वरद मुद्रा और धर्म चक्र मुद्रा का समावेश होता है। इस काल की बुद्ध की प्रतिमा में घुंघराले बाल देखने को मिलते हैं। गुप्तकाल की बुद्ध की प्रतिमाओं में सारनाथ की बैठे हुए बुद्ध की प्रतिमा, मथुरा में खड़े हुए बुद्ध की प्रतिमा और सुल्तानगंज की काँसे बुद्ध की प्रतिमा विशिष्ट स्थान पर है। इन मूर्तियों में भगवान बुद्ध को शांत चिंतन की मुद्रा में प्रदर्शित किया है। मानकुँवर के 448 ईस्वी के लेख से मालूम पड़ता है, कि बुद्धिमित्र नामक भिक्षु ने एक बुद्ध मूर्ति का निर्माण किया था। सारनाथ मे 476 ईस्वी मे अभयमित्र नामक बौद्ध भिक्षु द्वारा बुद्ध की प्रतिमा की स्थापना का वर्णन किया गया है।
जैन मूर्तियाँ
गुप्तकाल में जैन प्रतिमा की प्राप्ति का क्षेत्र बढ़ गया था। कृष्णा कालीन कलावशेष जो सिर्फ मथुरा और चौसा से प्राप्त होता था, तो वही गुप्तकाल में जैन प्रतिमाएं मथुरा और चौसा के राजगीरी, विदिशा, पन्ना, उदयगिरि, कहौम, वाराणसी और गुजरात के अकोटा में प्राप्त होती थी। गुप्तकाल की जैन मूर्तिकला में तीर्थंकरों की मूर्तियों के साथ ही इंद्र-इंद्राणी जैसे देवगण, तीर्थंकरों के अनुचर, यक्ष यक्षिणी, नाग नागिन, देवी सरस्वती और नवग्रह जैसे मूर्तियां प्राप्त होती है। जीन के साथ ही लांछनो और यक्ष यक्षी युगलों की निरूपण की रीत की शुरूआत गुप्त काल हुई थी।
गुप्तकाल की मूर्तियों की विशेषता मे आसन मे अलंकारिकता, साज सज्जा, धर्म चक्र के माध्यम मे अल्पता, परमेष्ठीयो का चित्रण, गंधर्व युगल का अंकन, नवग्रह तथा प्रभामंडल के प्रतिरूपण का समावेेश होता है। मूर्ति की हथेली पर चक्र चिह्न और पैरों मे त्रिरत्न अंकित किया जाता था।
गुप्तकाल में मथुरा में भगवान पार्श्वनाथ की तुलना में भगवान ऋषभनाथ की ज्यादा मूर्तियां बनाई गई है। जैन तीर्थकर की मूर्ति को मथुरा संग्रहालय में संग्रहित किया गया है। इस मूर्ति में सिहासन पर एक तरफ अपनी थैली सहित धनपति कुबेर, और दूसरी तरफ एक बालक को अपनी बाई जांघ पर बिठाए हुए देवी की आकृति अंकित की गई है। इसके ऊपर दोनों तरफ 4-4 कमल पर आसीन मूर्तियां है।
बिहार के राजगीर पर्वत पर ध्वस्त जैन मंदिरों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। 22वें तीर्थंकर नेमीनाथ की प्रतिमा वैभार पहाड़ी के ध्वस्त मंदिर से मिली है। पार्श्वनाथ की फनयुक्त प्रतिमा राजगिरी के तृतीय पर्वत से मिली है। इस मूर्ति का सिंहासन और मुख की बनावट गुप्तकाल में हुई है, और इसकी शैलीगत विशेषताए सारनाथ तथा देवगढ़ में साकार हुई है।
बिहार के आरा में चौसा से गुप्तकलीन जिन मूर्तियां मिली है, जो पटना के संग्रहालय में सुरक्षित की गई है। राजगीरी की नेमी मूर्ति के जैसे ही इस मुर्ती में भी धर्म चक्र केेेे दोनों तरफ महावीर के सिंंह लांछन अंकित किए गए हैं। मध्य प्रदेश केे विदिशा जिले के दुर्जनपुर गांव में तीन मूर्तियांं मिली है। इन मूर्तियों का निर्माण चौथी शताब्दी केेे अंत में हुआ था। मूर्ति की कला शैली मे कुषाणकालीन और पांचवी शताब्दी की गुप्त कालीन मूर्तिकला के बीच के लक्षण देखने को मिलते हैं। मध्य प्रदेश के विदिशा के उदयगिरि की 20 नंबर की गुफा में, गुप्त संवत 106 के कुमारगुप्तकालीन एक शिखा लेख में पार्श्वनाथ की मूर्ति के निर्माण के बारे में वर्णन किया गया है।
मध्य प्रदेश के नचना की सिरा पहाड़ी से गुप्तकाल की जैन मूर्तियां प्राप्त हुई है, जिसमें तीर्थंकर पद्मासन की मुद्रा में अंकित किए गए हैं। साथ ही उनके सर के पीछे एक विस्तृत प्रभामंडल है, जिसके शीर्ष के समीप दोनों तरफ उड़ते हुए गंधर्व युगल को अंकित किया गया है।
उत्तर प्रदेश के कहौम में 461 ईस्वी के एक स्तंभलेख में भद्र नामक व्यक्ति के द्वारा जैन मूर्तियों को स्थापित करने की बात की गई है। इन मूर्तियों मे ऋषभनाथ, शांतिनाथ, नेमिनाथ और पार्श्वनाथ तथा महावीर स्वामी की मूर्तियों का समावेश होता है। उत्तर प्रदेश के सीतापुर से जैन मूर्ति प्राप्त हुई है। गुजरात के अकोटा से 4 गुप्तकालीन कास्य प्रतिमाएं प्राप्त हुई है। जिसमें से दो मूर्तियां ऋषभनाथ की और दो मूर्तियां जीवंतस्वामी महावीर की है। इन मूर्तियों में विशुद्ध गुप्तकालीन शैली में ऋषभनाथ की धोती को धारण खड्गासन कास्य प्रतीमा है। यह मूर्ति सुल्तानगंज बुद्ध की ताम्र प्रतिमा से साम्यता रखती है। जीवंत स्वामी की मूर्तियां जैन कला और मूर्तियों के विज्ञान की श्रेष्ठतम कृति है। जीवंत स्वामी की पहली मूर्ति में उनका शीर्ष मुकुट से सुरक्षित किया गया है। दूसरी मूर्ति में जीवंत स्वामी को उँचे अभिलेखांकित पादपीठ पर खड्गासन ध्यानमुद्रा में बनाया गया है।
गुप्तकाल में देवगढ़ में भी प्रतिमा का निर्माण हुआ था। देवगढ़ में निर्मित प्रतिमाओं की संख्या और विविधता से मालूम पड़ता है, कि यहां मूर्ति निर्माण का बड़ा केंद्र रहा होगा। मूर्तिकला में देवगढ़ की खुद की स्वतंत्र शैली थी। देवगढ़ में निर्मित प्रतिमाओं में लांछन देखने को नहीं मिलता। इन सभी प्रतिमाओं ने अलग-अलग रूप से परंपराओं का निर्वाहन किया था। गुप्तकाल के देवगढ़ के कलाकार मूर्तियों में श्रद्धा और भावना का संचार करने में सफल रहे थे।
इस प्रकार भारत में मथुरा, राजगीरी, विदिशा, नचना, उदयगीरि, कहौम, वाराणसी, अकोटा, चौसा और देवगढ़ जैसे स्थलों पर से मिली तीर्थंकर की प्रतिमाओं से मालूम पड़ता है, कि गुप्तकाल तीर्थंकर मूर्तियों के निर्माण का काल रहा है।
इनके साथ साथ गुप्तकाल में दूसरे कई सारी देवी देवताओं की प्रतिमा का निर्माण करने में आया था। पटना संग्रहालय में गुप्त काल के मयूरासनासीन कार्तिकेय सुंदर प्रतिमा को सुरक्षित रूप से रखा गया है। महिषासुर का वध करते हुए दुर्गा माता की मूर्ति उदयगिरि की गुफा से प्राप्त हुई है।
मुणड मुर्तीयाँ
मिट्टी से बनी मूर्तियों का उपयोग धार्मिक और धर्मेंतर दोनों प्रकार के कार्यों के लिए किया जाता है। पहाड़पुर, राजघाट, भीटा, कोशांबी, श्रावस्ती, अहिछत्र और मथुरा जैसे विस्तार में से विष्णु, कार्तिकेय, दुर्गा, गंगा और जमुना जैसे देवी देवताओं की मुणडमुर्तीयाँ प्राप्त हुई है। आहीछत्र मे मिली गंगा, जमुना, पार्वती की प्रतिमाए सुंदर है।
उच्च कोटि की कारीगरी का प्रदर्शन मुणडमुर्तीयाँ करती है। एक गोल फलक पर सात घोड़े के रथ पर बैठे सूर्य का चित्रण किया गया है, जीस में दो देवीया उषा और प्रत्यूषा प्रकाश डाल कर रही है। पहाड़पुर के विस्तार में से कृष्ण की रासलीला और से जुड़ी कई सारी मुणडमुर्तीयाँ मिली है। श्रावस्ती की एक नारी की मुणडमुर्ती मे लड्डू से भरी थाली के सामने दो बालक साथ में बैठे हुए है।
गुप्तकालीन चित्रकला
चित्रकला का स्वर्ण युग गुप्तकाल को कहा जाता है। वात्स्यायन के कामसुत्र में चित्रकला को चौसठ कला मे रखा गया है। विष्णुधर्मेंतर पुर्ण मे मूर्ति और चित्र की कला के विधान मिलते हैं। गुप्तकाल के नाटकों और काव्य के आधार पर सभी नागरिक चित्रकला का ज्ञान लेते थे। कामसूत्र से मालूम पड़ता है, कि चित्रकला वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित थी, जिसका विज्ञानिक ढंग से अध्ययन अध्यापन किया जाता था। कालिदास ने अपनी रचनाओं में चित्रकला के विषय से संबंधित अनेक प्रसंग को वर्णित किया है। मेघदूत मे यक्ष पत्नी के माध्यम से यक्ष के भावगम्य चीत्र का वर्णन किया है।
बौद्धीक साहित्य से पता चलता है, कि चित्रकला का पूर्ण प्रचार बुद्ध के जीवनकाल में हो चुका था। सर्वास्तिवादीन् सांप्रदाय के वीनय मे विहारो में चित्रांकन का वर्णन किया गया है। गुप्तकालीन चित्रकला के सर्वोच्च उदाहरण मध्य प्रदेश के औरंगाबाद जिले में स्थित अजंता की गुफाओं के चित्र में और ग्वालियर के नजदीक कि बाघ की गुफा से मिलता है।
अजंता की चित्रकला
गुप्तकालीन चित्रकला का सर्वोच्च उदाहरण अजंता की चित्रकला है। महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले के जलगांव नाम के स्टेशन के समीप अजंता में चट्टानों को काटकर करीबन 29 गुफाएं बनाई गई है। जीने से सिर्फ 1,2, 9,10,16 और 17 नंबर की गुफा शेष है। पहली और दूसरी गुफा गुप्तोत्तरकाल में करीबन 628 ईस्वी में बनाई गई है। 9वीं और 10वीं गुफा का निर्माण प्रथम शताब्दी में गुप्त काल से पूर्व हुआ था। जबकि 16 और 17 संख्या की गुफा का निर्माण गुप्त काल में किया गया था।
अजंता के चित्र मुख्य तीन विषयों पर आधारित है। जिसमें अलंकरण, चित्रण, और वर्णन का समावेश होता है। अजंता की गुफाओं में प्राकृतिक सौंदर्य से संबंधित फूल पत्तियां, वृक्षों और पशु पक्षियों, अप्सराओं, किन्नरों, नागो, गंधर्व और यक्षो की अलौकिक आकृतिओ को बनाया गया है। इसके साथ ही बुध और बोधीसत्त्व के चित्र और जातक कथा के दृश्यों का चित्रण करने में आया है। अजंता में फ्रेस्को और टेंपेरा दोनों ही प्रकार की वीधीयो के चित्र देखने को मिलते हैं।
पहले मे गीले प्लास्टर पर चित्र बनाकर विशुद्ध रंगो द्वारा चित्रकारी की जाती थी। जबकि दूसरी विधि में सूखे प्लास्टर पर चित्र का चित्रण करने आता था। और रंगों के साथ अंडे की सफेदी और चुना मिलाने मे आता था। शेखचूर्ण, शिखाचूर्ण, सीता, मिश्री, गोबर, सफेद मिट्टी और चोकर को सें गाढ़ा लेप बनाया जाता था। चित्र बनाने से पहले दीवार को अच्छी तरह से साफ किया जाता था, और बाद में उस पर लेप चढ़ाया जाता था। चित्र की रूपरेखा तैयार करने के लिए लाल रंग की खडी़याँ का इस्तेमाल किया जाता था। चित्रकला के लिए लाल, पीला, नीला, काला और सफेद रंग का इस्तेमाल किया जाता था। अजंता के चित्रण के पूर्व कहीं भी नीले रंग का इस्तेमाल नहीं किया गया। चित्रकाम के लिए ज्यादातर लाल और पीले रंग का इस्तेमाल होता था।
तकनीकी दृष्टि से अजंता की 16वें नंबर की गुफा के चित्र विश्व में प्रथम स्थान पर आते हैं। इस गुफा में मरणासन्न राजकुमारी का चित्र प्रशंसनीय और अत्यंत सुंदर है। इस चित्र में करुणा के भाव को और अपनी कथा को स्पष्ट रूप से दर्शाया है। पति से विरह की वजह से मरणासन्न राजकुमारी के चारों तरफ उसके परिवार जन शोकाकुल खड़े थे। एक सेविका राजकुमारी को सहारा देकर ऊपर उठाए हैं, तो दूसरी पंखा झल रही है। विद्वानों के मुताबिक यह चित्र को बुद्ध के सौतेले भाई नंद की पत्नी सुंदरी का है।
इस गुफा के एक चित्र में बुद्ध के महाभिनिष्क्रमण के दृश्य को प्रदर्शित किया है। इस चित्र में अपनी पत्नी, पुत्र और परिचायीकाओ को छोड़कर जाते हुए बुद्ध को दिखाया गया है। साथ ही सुजाता का खीर अर्पण और माया का स्वप्न दर्शन को कुशलतापूर्वक चित्रित किया गया है। बुद्ध की पाठशाला का चित्र भी इस गुफा में आया हुआ है।
गुफा नंबर 17
इस गुफा में विविध प्रकार के चित्र को अंकित किया गया है। जिसकी वजह से इस गुफा को चित्रशाला कहा जाता है। यह गुफा विश्व के चित्रकला की अद्भुत चित्रशाला है। चित्रशाला में बुद्ध के जन्म, जीवन, महाभिनिष्क्रमण और महापरिनिर्वाण जैसी घटनाओं से जुड़े चित्र आए हुए हैं। इस गुफा के सभी चित्रों में से माता और शिशु नामक चित्र सबसे ज्यादा उत्कृष्ट चित्र है। विद्वानों का मानना है कि बुद्ध की पत्नी अपने पुत्र को उन्हें समर्पित कर रही है। इस गुफा में और भी कई सारे सुंदर चित्र का अंकन किया गया है। जिसमें पद्मापाणी अवलोकितेश्वर, बालक के साथ रहे अंधे माता पिता, मुर्छीत रानी, बोधिसत्व के माध्यम से संन्यास की घोषणा, तुषिता स्वर्ग में बुद्ध का स्वागत करने के लिए भगवान इंद्र की उड़ान, काले मृग तथा हाथी और सिंह के शिकार के चित्र का समावेश होता है। हरीषेण नाम के एक वाकाटक सामंत में इस गुफा को बनवाया था।
बाघ की चित्रकला
इस की गुफा के चित्रों को भी गुप्तकालीन माना जाता है। मध्य प्रदेश के ग्वालियर के पास धार में बाघीनी नाम की छोटी सी नदी के बायें किनारे पर और विंध्य पर्वत के दक्षिण ढलान पर बाघ की गुफा आई है। इसका निर्माण विंध्य पहाड़ी को काटकर किया गया है। स्मिथ के अनुसार अजंता नी गुफा निर्माण का कार्य खत्म होने के पश्चात बाघ की गुफाओं का निर्माण कार्य शुरू किया गया था। डेंजनफिल्ड ने 1818 ईस्वी मे 9 गुफाओं को खोजा था। इसमें से पहली, सातवीं, आठवीं और नौवीं गुफा नष्ट हो चुकी है। चौथी और पांचवी गुफा के चित्र सबसे ज्यादा सुरक्षित अवस्था में देखने मिलते हैं। बुद्ध और बोधिसत्व के चित्रों के साथ ही लौकीक जीवन से जुड़े राजदरबार, संगीत दृश्य और पुष्पमाला दृश्य जैसे चित्रण बाघ की गुफा में अंकित है।
दूसरी गुफा को पांडव गुफा के नाम से जाना जाता है। जबकि तीसरी गुफा को हाथीखाना के नाम से और चौथी तथा पांचवी गुफा को संयुक्त रूप से रंग महल के नाम से जाना जाता है। रंग महल गुफा में नृत्य और संगीत से संबंधित दृश्य का चित्रण किया गया है। इस चित्र में अल्प वस्त्र धारण करके नर्तकीया नृत्य कर रही है। नवयुवतियों के वस्त्र, केश विन्यास और वाद्य यंत्र को वैभव का प्रतीक माना जाता है।
इस गुफा में 6 चित्र विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इसमें पहला दृश्य राजकुमारी और उसकी सेवीका का बनाया गया है। दूसरे दृश्य में दो जोड़ों को दर्शाया गया है, जो एक दूसरे के सामने बैठकर शास्त्रार्थ में लीन दिखाई देते हैं। इसमें बाईं तरफ एक स्त्री पुरुष है, जिनके सर पर मुकुट होने की वजह से उनकी तुलना राजा रानी के साथ की जाती है। दूसरा जोड़ा साधारण है। तीसरा दृश्य संगीत का है। इसमें स्त्री समूह के बीच मे एक स्त्री वीणा बजा रही है। संगीत युक्त नृत्य का दृश्य चौथा है। इस दृश्य में प्रदर्शित चक्राकार नृत्य को भारतीय परंपरा मे हल्लीसक के नाम से जाना चाहता है। जिसकी उत्पत्ति कृष्ण के रासलीला से हुई थी। पांचवें चित्र मे सामूहिक नृत्य को सम्राट और उनके घुड़सवार सैनिक देखते हुए अंकित किया गया है। आखरी और छठा दृश्य हाथियों और घोड़ों पर सवार स्त्री पुरुषों का चित्र है। हाथी पर एक भीमकाय पुरुष और 3 स्त्रियां बैठी हुई दिखाई देती है। पीछे दूसरा हाथी है जिस पर भी इसी प्रकार से पुरुष और स्त्री बैठे हुए हैं।
गुप्तकालीन संगीत नृत्य और अभिनय
गुप्त काल में संगीत नृत्य और अभिनय कला का भी विशिष्ट रूप से विकास हुआ था। वात्स्यायन ने सभी मनुष्य के लिए संगीत का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक बताया था। समुद्रगुप्त खुद संगीत के ज्ञाता थे। और वे कुशल वीणावादक थे। वेणु नाम के वाद्य यंत्र का इस्तेमाल करके प्रियतमा को आकर्षित किया जाता था। संगीत और नृत्य के आचार्य गणदास थे। नगर की उच्च वर्ग की कन्याओं को नृत्य की शिक्षा प्रदान की जाती थी। नाटको के अभीनय लिए नाट्यशाला की स्थापना भी की गई थी। जिसे रंगशाला के रूप से जाना जाता था।
Last Final Word
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