भारत में सांप्रदायिकता का विकास

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दोस्तों आज के इस आर्टिकल में हम भारत मे सांप्रदायिकता का विकास कैसे हुआ उसके बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे। आप इस आर्टिकल को ध्यान से पढ़ना ताकि भारत के सांप्रदायिकता के विकास से जुड़े आपके सभी सवालों के जवाब आपको मिल सके। भारत को आजाद कराने के लिए अनेक आंदोलन करने में आए थे। आंदोलन के चलते भारत को अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के परिणाम मिले हैं। भारत में राष्ट्रवादी आंदोलन के साथ सांप्रदायिकता का विकास हुआ था।

Contents
भारत में संप्रदायिकता के विकास के विभिन्न चरणभारत में सांप्रदायिक राजनीति का प्रारंभसांप्रदायिकता के विकास में सर सैयद अहमद खान की भूमिकाहिंदूवादी सांप्रदायिकता का विकासमुस्लिम लिंग और सांप्रदायिकतापृथक निर्वाचन पद्धति – स्थायी दरारलखनऊ समझौताहिंदू मुस्लिम एकतासंप्रदायवाद और हिंदू मुस्लिम दंगेसाइमन कमीशन और सांप्रदायिकतामोहम्मद जिन्ना का चार सुत्रीय मांग पत्रवर्ष 1930 के दशक में सांप्रदायिकतासांप्रदायिक संगठनों के समान तत्वमुस्लिम राष्ट्रीयता का विकासवर्ष 1937 के प्रांतीय चुनाव और सांप्रदायिकताउग्रवादी सांप्रदायिकता का विकासद्वी राष्ट्र का सिद्धांतद्वितीय विश्वयुद्ध और सांप्रदायिकताअलग राष्ट्र की मांगLast Final Word

भारत में संप्रदायिकता के विकास के विभिन्न चरण

जब भारत में आजादी के लिए भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन चल रहा था, तब भारत में सांप्रदायिकता ने जन्म लिया। भारत पर ब्रिटिश हुकूमत की स्थापना के बाद से ही ब्रिटिश सरकार मुसलमान लोगों को अपना दुश्मन मानते थे। ब्रिटिश सरकार को लगता था, कि मुसलमान लोगों से उनकी सत्ता को खतरा हो सकता है। साथ ही मुसलमान उसके राज्य के विस्तार को आगे बनाए रखने के लिए बाधा बन सकते हैं। इसी वजह से ब्रिटिश हुकूमत ने मुसलमान लोगों को दबाए रखना आवश्यक समझा। साल 1792 बंगाल का बंदोबस्त, मुसलमानों के दमन के लिए और हिंदुओं के समर्थन के लिए लागू किया गया था। जिसके बाद हिंदू कर संग्रहको को भूमि का स्वामी बना दिया गया था।

हम सब जानते हैं कि भारत में कई सारे मुस्लिम राजाओं ने अपने साम्राज्य पर कुशलतापूर्वक शासन किया है। जिसकी वजह से कुछ भारतीय लोगों ने मुसलमान के इस्लाम धर्म को अपनाया था। अनेक शताब्दी तक हिंदू मुसलमान एक दूसरे के साथ में रहे थे। जिसकी वजह से दोनों के रहन सहन और परंपरा में समानता दिखने लगी थी। कभी-कभी दोनों में मन मुटाव हो जाता था। परंतु हिंदू और मुसलमान एक दूसरे की सहायता भी करते थे। जिसका श्रेष्ठ उदाहरण वर्ष 1857 का स्वतंत्र संग्राम है। जिसके दौरान हिंदू और मुसलमान दोनों संप्रदायो के लोगों ने एकजुट होकर अंग्रेजो के खिलाफ संघर्ष किया था।

वर्ष 1857 के स्वतंत्र संग्राम में मुख्य नेता मुसलमान थे। बहादुर शाह जफर को विद्रोही सिपाहियों ने भारत के सम्राट के नाम से संबोधित किया था। ब्रिटिश हुकूमत को लगता था, कि स्वतंत्र संग्राम के द्वारा मुसलमान अपने शासन को वापिस भारत में स्थापित करना चाहते हैं। जिसकी वजह से ब्रिटिश हुकूमत ने इस आंदोलन को खत्म करवा दिया। जिसके बाद उन्होंने मुसलमान लोगों से बदला लीया। स्वतंत्र संग्राम के बाद ब्रिटिश हुकूमत ने मुसलमान लोगों के विरोध में एक नीति बनायी। इस नीति ने मुसलमान लोगों का आर्थिक और सांस्कृतिक अध: पतन किया। वर्ष 1858 मैं एक घोषणा करने में आई, जिसमें कहा गया था कि, सार्वजनिक पदों की नियुक्ति से जुड़े विषय में सरकार, जाति और धर्म का भेदभाव नहीं करेगी। परंतु ब्रिटिश सरकार ने मुसलमान लोगों को राजकीय पदों से दूर कर दिया था। साथ ही मुसलमानों को शिक्षा और आर्थिक क्षेत्र मैं लताड़कर बुरी तरह से दंडित किया। भारत के सरकारी पदों मैं ऊंचे पद पर यूरोपियन को और छोटे पद पर हिंदू लोगों की नियुक्ति करने में आई। मुसलमान लोगों को सरकारी पदों से वंचित रखा गया। वर्ष 1852 से लेकर 1862 तक मध्य हाईकोर्ट के 240 वकीलों में सिर्फ एक ही मुसलमान था। 1871के आंकड़ों के अनुसार बंगाल में 2141 राजपत्रित अधिकारियों में 1338 यूरोपियन उम्मीदवार और 711 हिंदू उम्मीदवार थे। जबकि मुसलमान सिर्फ 92 थे।

भारत में सांप्रदायिक राजनीति का प्रारंभ

वर्ष 1870 में भारत में मुस्लिम सांप्रदायिकता की शुरुआत हुई थी। ब्रिटिश सरकार की मुसलमान विरोधी नीति में बदलाव आया और आंग्ल मुस्लिम मित्रता शुरू हुई। वर्ष 1871 में विलियम हंटर ने अपनी प्रकाशित की गई पुस्तक दी इंडियन मुसलमान मैं ऐग्लो मुसलमान मित्रता की जरूरत पर बल दिया। विलियम हंटर ने मुसलमानों की आर्थिक परिस्थिति को देखकर साल 1871 में लिखा था, कि मुसलमान भारत मैं आर्थिक रूप से विनिष्ट जाती है, और उन को साथ रखना आसान है। विलियम हंटर ने कहा था कि ब्रिटिश सत्ता को बनाए रखने के लिए मुसलमान लोगों के प्रति नीति को बदल कर उन्हें शांत और संतुष्ट बनाए रखने की जरूरत है। भारत में चल रहे राष्ट्रवादी आंदोलन की स्वराज की मांग को रोकने के लिए, और कांग्रेस के, भारत के लोगों पर बढ़ रहे प्रभाव को खत्म करने के लिए, ब्रिटिश सरकार ने भारत में बांटो और राज करो की नीति को अपनाया था। जिसके चलते मुस्लिम सांप्रदायिकता को ब्रिटिश सरकार के द्वारा बढ़ावा मिला था। शुरुआत के समय में ब्रिटिश सरकार ने बंगाली वर्चस्व का नाम लेकर, प्रांतवाद को आगे बढ़ाया और फिर जातिप्रथा का इस्तेमाल करके गैर ब्राह्मण जाती को ब्राह्मणों के खिलाफ और निचली जातियों को ऊंची जातियों के विरुद्ध में भड़काया। इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने संयुक्त प्रांत और बिहार मे उर्दू-हिंदी के विवाद को प्रोत्साहन देकर सांप्रदायिकता को और भी आगे बढ़ाया था। ब्रिटिश सरकार को पता चल गया था कि, भारत में शासन को बनाए रखने के लिए और ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा करने के लिए, एक ही उपाय है जो भारत के अलग-अलग संप्रदायों और समूहों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा कर देना है।

सांप्रदायिकता के विकास में सर सैयद अहमद खान की भूमिका

धार्मिकता के विकास में सर सैयद अहमद खान की भूमिका विशिष्ट रही है। शुरुआती समय में सर सैयद अहमद खान एक बुद्धिमतापूर्ण, दूरदर्शी और सुधारवादी अधिकारी थे। परंतु जीवन के आखिरी दिनों मैं उसने राष्ट्रीयता को सांप्रदायिकता में बदल कर रख दिया। सर सैयद अहमद खान ने मुसलमानों को उच्च शिक्षा प्राप्त कराने के लिए अलीगढ़ में कॉलेज की स्थापना करवाई थी। उन्होंने वर्ष 1880 में औपनिवेशिक शासन का समर्थन करना शुरू किया और सरकारी नौकरियों में मुसलमान लोगों के साथ विशिष्ट व्यवहार करने की मांग जाहिर की। सर सैयद अहमद खान ने मुसलमान लोगों को राष्ट्रीय आंदोलन और कांग्रेस के नेताओं से दूर रखने के लिए बनारस के राजा शिव प्रसाद के साथ मिलकर ब्रिटिश राज्य के प्रति वफादारी का आंदोलन चलाने का फैसला लिया।

भारत में साल 1885 में कांग्रेस की स्थापना हुई। जिसके बाद सर सैयद अहमद खान ने इसके खिलाफ वर्ष 1887 में मुस्लिम शिक्षा सम्मेलन और वर्ष 1893 में इंडियन पेट्रियाटिक एसोसिएशन तथा साल 1893मे मोहम्मडन एंग्लोओरिएंटल डिफरेंस एसोसिएशनम संस्था की स्थापना की। उसने घोषणा कर दी थी, कि शिक्षित मुसलमान अगर ब्रिटिश सरकार से वफादारी रखता है, तो ब्रिटिश सरकार उसे सरकारी नौकरि तथा दूसरी विशेष कृपा के रूप में उसे पुरस्कार देंगी। उसके द्वारा स्थापित की गई डिफरेंस एसोसिएशन ने मांग की थी कि स्थानिक स्वशासन संस्थाओं में मुसलमान लोगो को सुनिश्चित प्रतिनिधित्व दिए जाए, और संप्रदायीक आधार पर पृथक निर्वाचन पद्धति लागू की जाए। समय के साथ अलीगढ़ कॉलेज के प्राचार्य एम.ए.ओ ने बैंक के प्रभाव में आकर सैयद अहमद खान को कहा था, कि हिंदू बहुमत में है, जिसकी वजह से ब्रिटिश शासन के निर्बल हो जाने से या खत्म हो जाने पर मुसलमानों पर हिंदुओं का दबदबा कायम रहेगा। बैंक ने मुसलमानों को कांग्रेस के प्रति समझाते हुए कहा था, कि कांग्रेस का लक्ष, राजनीतिक नियंत्रण ब्रिटिश सरकार से हिंदू को हस्तांतरित कराना है। सैयद अहमद खान और बैंक के प्रयासों की वजह से मुसलमान लोग राष्ट्रीय आंदोलन से दूर भाग रहे थे। इसके बावजूद वर्ष 1899 में लखनऊ में हुए अधिवेशन में मुसलमान लोगों की संख्या करीबन 42% थी।

हिंदूवादी सांप्रदायिकता का विकास

भारत में वर्ष 1870 के बाद से ही हिंदू जमीदार और मध्यवर्गीय पेशेवर लोग मुस्लिम विरोधी भावना फैलाने लगे थे। इसी दौरान आर्य समाजी शुद्धि आंदोलनो ने हिंदू सांप्रदायिकता की निंव को रखा था। भारत में चल रहे संयुक्त प्रांत और बिहार में हिंदू उर्दू के विवाद को सांप्रदायिकता ने आगे बढ़ाया। जिसके चलते, यह प्रचार किया गया कि उर्दू भाषा मुसलमान लोगों की और हिंदू भाषा हिंदू लोगों की होगी। संपूर्ण भारत में आर्य समाज के द्वारा वर्ष 1890 में गौ हत्या विरोधी प्रचार अभियान लागू किया गया। यह अभियान ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध में नहीं था। केवल मुसलमान लोगों के विरुद्ध में था। हिंदू ने भी देखा देखी में आकर सरकारी पदों के लिए हिंदू सीटों की मांग की।

लॉर्ड कर्जन ने भारत में चल रहे राष्ट्रीय आंदोलन को खत्म करने के लिए वर्ष 1950 में बांटो और राज करो की नीति को चलाया था। इस नीति के चलते बंगाल का विभाजन कर दिया गया। पूर्वी बंगाल के विस्तार में हिंदू लोग संपन्न और शिक्षित थे तथा मुस्लिम मुख्यतः निर्धन किसान थे। कर्जन की इस नीति की वजह से सांप्रदायिकता को हवा मिली। पूर्वी बंगाल के विस्तार के मुसलमानों को कर्जन ने विश्वास दिलाया कि, ब्रिटिश हुकूमत मुसलमानों के कल्याण के लिए बंगाल का विभाजन कर रही है। हकीकत में कर्जन का लक्ष्य हिंदू मुसलमानों की एकता को तोड़कर बंगाली राष्ट्रवाद को कमजोर कर देना और एक पृथक मुस्लिम प्रांत बनाकर मुसलमानों को हिंदुओं के खिलाफ भड़काना था।

मुस्लिम लिंग और सांप्रदायिकता

कर्जन के द्वारा लाई गई बंगाल के विभाजन की नीति के विरुद्ध के आंदोलन शरु रासो गए। जिससे डर कर ब्रिटिश सरकार ने अभिजात वर्गीय मुसलमानों को एक राजकीय पार्टी में जुड़ने के लिए प्रेरित कीया। वायसराय लार्ड मिंटो ने खुफिया तरीके से अलीगढ़ कॉलेज के प्राचार्य को एक पत्र लिखा। इस पत्र में मुसलमानों को एक शिष्टमंडल में भेजने के लिए कहां गया था। शिमला में 1 अक्टूबर 1906 के दिन आगा खान के नेतृत्व में 35 मुसलमानों के प्रतिनिधि मंडल ने वायसराय लार्ड मिंटो से मुलाकात की थी। जिसमें मुस्लिम प्रतिनिधिमंडल ने वायसराय को मुसलमानों की वफादारी का विश्वास दिलाते हुए विधानसभा, स्थानीय संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में विशेष प्रतिनिधित्व देने के बारे में मांग की थी। वायसराय उनकी बात से समर्थ हो गए। 9 अक्टूबर 1906 के दिन ढाका के नवाब सलीमुल्ला खान ने उनके प्रोत्साहन और अलीगढ़ कॉलेज के प्राचार्य की शह पर एक प्रपत्र जाहिर किया। इस पत्र में उन्होंने ऑल इंडिया मुस्लिम कॉन्फ्रेंस नाम की एक मुस्लिम संगठनसंस्था बनाने के बारे में अपना प्रस्ताव रखा था। इस प्रस्ताव के बाद 30 दिसंबर 1906 में ढाका के नवाब मोहसीन-उल-मुल्क और बकार-उल-मुल्क ने भारत के प्रमुख मुस्लिम नेताओं की बैठक बुलाकर एक सरकारीपरस्त रुढि़वादी राजनीतिक संगठन के रूप में ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की स्थापना की।

ऑल इंडिया मुस्लिम लिंग की स्थापना का मुख्य लक्ष्य शिक्षित मुस्लिम वर्ग को कांग्रेस से दूर रखना और मुसलमान लोगों को भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन से विमुख रखकर आंदोलन को कमजोर कर देना था। इस संगठन में बंगाल के विभाजन के साथ-साथ मुसलमानों के अलग मतदान मंडल की मांग की।

पृथक निर्वाचन पद्धति – स्थायी दरार

वर्ष 1909 के मार्ले मिंटो सुधार ने हिंदू और मुसलमान के बीच में स्थाई रूप से दरार पैदा करदी थी। ऑल इंडियन मुस्लिम लिंग की मांग के अंतर्गत ब्रिटिश सरकार ने 1909 के सुधार अधिनियम में मुसलमान लोगों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल और प्रतिनिधित्व की व्यवस्था करवाई थी। पृथक निर्वाचन मंडल के अंतर्गत मुसलमान संप्रदाय के मतदारो के लिए अलग चुनाव क्षेत्र बनवाए गए। जिसमें केवल मुसलमान उम्मीदवार ही खड़ा हो सकता था और मतदान का अधिकार भी सिर्फ मुसलमान लोगों के पास ही था। भारत के उस वक्त के सचिव लॉर्ड मार्ले ने वायसराय को एक पत्र के जरिए बताया था, कि पृथक निर्वाचन बनाकर हम घातक विष को बना रहे हैं, जिसकी असर बड़ी घातक होगी।

वर्ष 1910 की अलहाबाद कांग्रेस अधिवेशन में मोहम्मद अली जिन्ना ने पृथक प्रतिनिधित्व के खिलाफ प्रस्ताव रखा और इसे भारत के राजनीतिक रूपी शरीर में बुरी नीयत से प्रविष्ट किया गया विष भरा तत्व बताया। उस वक्त राष्ट्रवादी भावनाए देवबंद के नेतृत्व से पारंपरिक मुसलमान उलेमाओं के एक वर्ग में ही उभर रही थी। भारत में प्रखर राष्ट्रवादी अहरार आंदोलन, मौलाना मोहम्मद अली, हकीम अजमल खान, हसन इमाम, मौलाना जफर अली और मजहरुल हक के नेतृत्व में किया गया था।

लखनऊ समझौता

मुस्लिम लिंग कांग्रेस की नीतियों के निकट बीसवीं सदी के दूसरे दशक में पहुंच गए थे और मौलाना आजाद और मोहम्मद अली जिन्ना एस.एम मुसलमान युवा राष्ट्रवादी सरकारपरस्तों भारी पढ़ रहे थे। आगा खान की जगह पर मोहम्मद अली जिन्ना वर्ष 1912 में मुस्लिम लिंग के अध्यक्ष बने। मुस्लिम लीग और कांग्रेस के बीच में लखनऊ समझौता वर्ष 1916 के अंत में तिलक और मोहम्मद अली जिन्ना के प्रयासों के कारण हुआ। जिसके चलते मुस्लिम लीग ने स्वशासन की मांग का समर्थन किया और कांग्रेस ने पृथक निर्वाचन की व्यवस्था को स्वीकार किया। लखनऊ समझौता प्रगतिशील था परंतु कांग्रेस द्वारा मुस्लिम लिंग की स्थापना की राजनीति को समर्थन करना भारत के लिए काफी घातक साबित हो सकता था।

हिंदू मुस्लिम एकता

भारत में हिंदू मुस्लिम की एकता रौलेट एक्ट के विरोध के आंदोलन में और खिलाफत तथा असहयोग आंदोलन में मजबूत हुई। दिल्ली की जामा मस्जिद में आर्य समाज के नेता स्वामी सहजानंद ने भाषण दिया था। अमृतसर के स्वर्णमंदिर की चाबीयाँ डॉक्टर सैफुद्दीन कीचुल को सौंपी गई। सविनय अवज्ञा आंदोलन, जमायते-उल-उलेमा-ए-हींद, कश्मीर राज्य और खुदाई खिदमतगार ने कांग्रेस के साथ मिलकर किया था। दिसंबर 1931 में जमायते-उल-उलेमा-ए-हींद के एक कार्यक्रम में स्वतंत्र भारत की परिकल्पना अलग-अलग धार्मिक समुदायों के संघ के रूप में करने में आई थी। हालांकि खिलाफत आंदोलन का स्वरूप धार्मिक था, परंतु इस आंदोलन में मुसलमान और मध्यम वर्ग में साम्राज्यवाद के खिलाफ की भावना को जगाया था। इस प्रकार हिंदू मुस्लिम एकता अस्थायी बनी।

संप्रदायवाद और हिंदू मुस्लिम दंगे

वर्ष 1919 के बाद की राजनीतिक साधना में निहित के कारण 1920 के दशक में संप्रदायवाद का विकास हुआ। मांटफार्ड सुधार के द्वारा मताधिकार को विस्तृत किया गया। साथ ही अलग निर्वाचक मंडल को बरकरार रखकर उन में वृद्धि करने में आई थी। गुटपरस्त नारों के द्वारा स्वार्थी राजनीतिज्ञो ने अपने स्वार्थ के लिए समर्थन बढ़ाएं और अपने धर्म क्षेत्र और जाति से संबंधित समूह को लाभ देने के लिए प्रयास किए। वर्ष 1920 के दूसरे दशक में शिक्षा का सही मात्रा में प्रसार प्रचार किया गया था। चौरीचौरा कांड के बाद फरवरी 1922 में असहयोग आंदोलन के स्थगन के साथ ही अवसरवादी हिंदू मुस्लिम गठजोड़ भी खत्म हो गए। इसीके साथ सांप्रदायिकता को विकसित होने का मौका मिला। वर्ष 1922 से लेकर 1923 तक मध्य मुस्लिम लिंग और हिंदू महासभा जैसे सांप्रदायिक संगठन वापीस सक्रिय होकर सांप्रदायिक राजनीति में कूद पडे। वर्ष 1915 में पंडित मदन मोहन मालवीय और कुछ पंजाबी नेताओं ने हिंद महासभा की स्थापना हरिद्वार में कुंभ मेले में की थी।

हिंदू महासभा बड़े पैमाने पर पुनरुत्थान वर्ष 1922 और 1923 मैं हुआ था। वर्ष 1923 के हिंदू महासभा के बनारस अधिवेशन में शुद्धि का कार्यक्रम और हिंदू आत्मरक्षा के जत्थो को बनाने का आह्वान किया गया। आर्य समाज के कार्यकर्ताओं ने मोपलो के माध्यम से बलपूर्वक हिंदुओं को मुसलमान बनाने के बाद शुद्धि आंदोलन शुरू किया था। बलपूर्वक मुसलमान बनाई गई हिंदुओ की शुद्धि के लिए स्वामी श्रद्धानंद ने वर्ष 1923 में शुद्धि आंदोलन को चलाया था। मुसलमान के नेताओं ने शुद्धि आंदोलन के जवाब में तबलीग और तंजीम आंदोलन का प्रारंभ किया।

वर्ष 1870 में भारत में दंगों की शुरुआत हुई। दंगों का प्रारंभ आर्य समाज के गौ रक्षा आंदोलन से हुआ था। वर्ष 1920 के दशक में सांप्रदायिकता के पुनरुत्थान की वजह से दंगों की आवृत्ति में भी विकास हुआ था। पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में सितंबर 1924 में एक हिंदू विरोधी दंगा हुआ। दंगे की वजह से 155 लोग ने अपनी जान गवा दी। इसके बाद गांधीजी ने सितंबर 1924 में दिल्ली में मोहम्मद अली के घर रह कर 21 दिनों का उपवास किया था। 26 सितंबर से 2 अक्टूबर 1924 तक नेताओं की एकता के लिए गांधी जी ने एकता आंदोलन और केंद्रीय पंचायत का निर्माण किया। गांधी जी ने 29 मई 1924 को यंग इंडिया में प्रासंगिक बात की। उन्होंने बताया था, कि गायों की जान बचाने के लिए मनुष्य की जान लेना बर्बर और अपराध के समान है। मोहम्मद जिन्ना के अध्यक्षता में हुए वर्ष 1924 के लाहौर अधिवेशन मे मुस्लिम लिंग के लोगों ने की मांग की, की मुसलमान बहुल क्षेत्रों को हिंदुओं के प्रभुत्व से बचाने के लिए संपूर्ण प्रांतीय स्वायत्तता प्राप्त हो। इनकी यह मांग अलग निर्वाचक मंडल के अतिरिक्त थी, जो पाकिस्तान की अलग करने की मांग उठने तक मुस्लिम लीग का नारा बनी रही।

वर्ष 1926 में कलकत्ता, ढाका, पटना और दिल्ली में दंगे की वजह से सैकड़ों लोग की जान चली गई। यहां तक कि दंगों की वजह से वर्ष 1926 में स्वामी श्रद्धानंद की भी हत्या कर दी गई। साइमन कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में बताया था, कि वर्ष 1922 से लेकर 1927 तक करीबन 112 दंगे हुए थे। यह सभी दंगे एक ही मुद्दे की वजह से हो रहे थे। मुस्लिम संप्रदाय के लोग चाहते थे कि मस्जिद के सामने बाजा ना बजाया जाए। हिंदू संप्रदाय के लोग चाहते थे की गोकशी बंद हो जाए।

साइमन कमीशन और सांप्रदायिकता

हिंदू मुसलमान की एकता के अवसर कमीशन के बहिष्कार के वक्त दिखाई देने लगे। अनेक सर्वदलीय राष्ट्रीय सम्मेलन के पश्चात भारत का एक सर्व सम्मत संविधान का निर्माण किया गया। जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम नेताओं ने दिसंबर 1927 में एक 4 सूत्रीय मांगपत्र ‘दिल्ली प्रस्ताव’ पेश किया। इस प्रस्ताव में मांग करने में आई थी, कि सिंध को एक अलग राज्य बनाया जाए और केंद्रीय विधायीका में मुसलमान लोगों को 33% से ज्यादा प्रतिनिधित्व देने के लिए तथा पंजाब और बंगाल में प्रतिनिधित्व का अनुमान आबादी के अंतर्गत प्रमाणित किया जाए। साथ ही वे चाहते थे कि अन्य प्रांतों में मुसलमानों का वर्तमान आरक्षण किया जाए।

मोहम्मद जिन्ना के इस 4 सूत्रीय प्रस्ताव को कांग्रेस ने अस्वीकार किया। वर्ष 1928 में दिसंबर को सर्वदलीय सम्मेलन में अनुमोदन के लिए नेहरू रिपोर्ट प्रस्तुत करने में आई थी। नेहरू रिपोर्ट को सभी दलों की समितियों ने मिलकर बनाया था। परंतु मुस्लिम संप्रदायवादीयो, हिंदू महासभा और सिख लिंग ने भी नेहरू रिपोर्ट के प्रति अपना विरोध प्रकट किया था। मोहम्मद जिन्ना ने नेहरू रिपोर्ट को हिंदुओं के लाभों का दस्तावेज बता कर हिंदू मुस्लिम के अलग-अलग रास्ते का नारा प्रचलित किया। शौकत अली ने बड़ी ही निराशा के साथ वर्ष 1928 में कहा था कि कांग्रेस हिंदू महासभा की एक दूमछल्ला बन चुकी है।

मोहम्मद जिन्ना का चार सुत्रीय मांग पत्र

जिन्ना ने मुसलमानों के विशेष अधिकारों की रक्षा के लिए वर्ष 1929 में मार्च में 4 सूत्रीय मांगपत्र प्रस्तुत किया था। इस मांगपत्र का सर्वदलीय बैठक ने अस्वीकार किया था। जिसकी वजह से मुस्लिम लीग और भी ज्यादा आक्रामक हो गया। कांग्रेस पर मुस्लिम विरोधी होने का आक्षेप लगाया गया। साथ ही मुसलमानों को धार्मिक आधार पर लामलम बंद करने लगे। इस वजह से हिंदू मुस्लिम के बीच में समझौता कर सांप्रदायिक की समस्या का हल निकालना असंभव हो गया था। इसके बावजूद वर्ष 1920 के दशक में सांप्रदायिक दलों और समूहों के सक्रिय रहने की वजह से सांप्रदायिकता भारतीय समाज में व्यापक रूप से प्रचारित नही हो पाई थी। भारत में सांप्रदायिकता केवल शहरों तक ही सीमित थी और सांप्रदायिक नेताओं को कोई व्यापक जन समर्थन भी नहीं मिला था।

वर्ष 1930 के दशक में सांप्रदायिकता

लंदन में आयोजित तीनों गोलमेज सम्मेलन वर्ष 1930 में सांप्रदायिकता को मैदान में आने का मौका मिला। गोलमेज परिषद में मुसलमान और सिखों के साथ महत्वपूर्ण राजनेता भीमराव अंबेडकर ने क्षेत्र के लिए पृथक निर्वाचन की मांग की थी। 16 अगस्त 1932 को हिंदुओं तथा मुसलमानों के गतिविधियो का फायदा उठाकर प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडॉनोल्ड ने सांप्रदायिक निर्णय की घोषणा की थी। जिसके अंतर्गत प्रत्येक अल्पसंख्यक समुदाय के लिए विधान मंडलों के कुछ पदों को आरक्षित किया जाएगा। सुरक्षित सीटों के लिए सदस्यों का चुनाव पृथक निर्वाचन मंडलों से किया जाएगा। इसका मतलब है कि मुसलमान सिर्फ मुसलमान को और सिख सिर्फ सिख को अपना मत दे सकता है। इस निर्णय में अल्पसंख्यको के जैसे ही अछुत वर्ग को भी अलग प्रतिनिधित्व देने की घोषणा की थी। सांप्रदायिक निर्णय वर्ष 1909 के भारतीय शासन विधान में, निहित सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व के उद्देश्य पर आधारित था। वर्ष 1916 में कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के साथ हुए लखनऊ समझौते में मुसलमान संप्रदाय के लोगों के लिए पृथक् निर्वाचनमंडल की बात का समर्थन किया था। परंतु कांग्रेस मुसलमान, सीखो, ईसाईयों और अछूतों के लिए पृथक निर्वाचनमंडल की बात के खिलाफ थे।

संप्रदायवादियो ब्रिटिश हुकूमत के सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी तत्वों से मिल गए थे। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि, हिंदू और मुसलमान के लाभ एक दूसरे के विरोधी तत्व है। मुस्लिम लिंग को सांप्रदायिक निर्णय और वर्ष 1935 के अधिनियम के बाद वह सब कुछ मिल गया था जिसकी मांग ले कर के आ रहे थे।

सांप्रदायिक संगठनों के समान तत्व

हिंदू और मुसलमान संप्रदाय के कुछ तत्व मैं समानता थी। जैसे कि हिंदू मुसलमान दोनों संप्रदाय के समूह को समाज के पतनकारी तथा संकीर्ण वादी वर्गों का सहयोग मिल रहा था। जिसमें जमींदार सामंत और राजा महाराजा का समावेश होता है। दूसरा दोनों समुदायों का संघर्ष ब्रिटिश शासन के खिलाफ ना होकर आपस में चल रहा था। और उन्हें ब्रिटिश सरकार से ही सहायता मिल रही थी। तिसरा हिंदू और मुसलमान संप्रदायिक समुदाय ने उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष और प्रजातांत्रिक राज्य की धारणा का प्रतिनिधित्व करने वाले कांग्रेस समूह के खिलाफ चल रहे थे। चोथा दोनों समूह का मानना था, कि हिंदू तथा मुसलमान पृथक राष्ट्रीयताएँ है।

मुस्लिम राजनीति में शुरुआत से ही स्तर संबंधी भेदभाव और वैचारिक विवाद फैले हुए थे। मुसलमान वर्ष 1930 के दशक के अंदर कोई निश्चित राजनीतिक संस्था नहीं बना पाए थे। फिर भी वर्ष 1920 से लेकर 1930 के दशकों में ब्रिटिश सरकार की सहायता की वजह से राजनीतिक दृष्टि से मुसलमानों को कई सारे लाभ प्राप्त हुए थे। कांग्रेस कभी भी पृथक निर्वाचन की व्यवस्था के समर्थन में नहीं था। और उनका प्रयत्न रहता था, कि पृथक निर्वाचन की पद्धति के प्रति नकारात्मक प्रचार करती रहे। कांग्रेस की नीतियों से अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों में संदेह फैल चुका था। जिसके कारण मुसलमान कांग्रेस के राष्ट्रीय कार्यक्रमों से दूर रहते थे।

मुस्लिम राष्ट्रीयता का विकास

वर्ष 1930 में इलाहाबाद मुस्लिम लिंग के अध्यक्ष के रूप में प्रसिद्ध शायर और राष्ट्रवादी कवि इकबाल ने भारत के अंदर 4 मुस्लिम बहुल प्रांतों को जोड़कर एक इस्लामिक राज के निर्माण का प्रस्ताव जारी किया था। प्रस्ताव के 4 मुस्लिम बहुल प्रांतों में पंजाब पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत, सिंध और बलूचिस्तान का समावेश किया गया था। कवि इकबाल ने अपनी कविताओं और दार्शनिक लेखों के माध्यम से मुस्लिम वर्ग के नव युवा नो को इस्लामिक राज्य के निर्माण की ओर आकर्षित करने का कार्य शुरू कर दिया। वर्ष 1934 में चौधरी रहमत अली जो कैंब्रिज विश्वविद्यालय के छात्र थे उन्होंने पाकिस्तान आंदोलन का आरंभ करके भारत के 4 मुस्लिम प्रांत पंजाब, पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत, सिंध और बलूचिस्तान तथा कश्मीर को जोड़कर अस्पष्ट रुप से पाकिस्तान के निर्माण करने की बात की थी। PAKISTAN शब्द का अर्थ उसी में रहा है। P पंजाब के लिए, A अफगानिस्तान के विस्तार के लिए, K कश्मीर के विस्तार के लिए, IS सिंध के विस्तार के लिए और तान बलूचिस्तान के क्षेत्र के लिए प्रयुक्त किया गया है।

शुरुआती समय में चौधरी रहमत अली के पाकिस्तान के विचार का मोहम्मद जिन्ना ने और भारत के दूसरे राष्ट्रवादी मुस्लिम नेताओं ने मजाक उड़ाया था। परंतु बाद में यही शब्द मुस्लिम राष्ट्रीयता का आधार बन गया था।

वर्ष 1937 के प्रांतीय चुनाव और सांप्रदायिकता

मुस्लिम लिंग और हिंदू महासभा जैसे सांप्रदायिक संगठनों में बीसवीं सदी के तीसरे दशक के मध्य तक बहुत कम लोग जुड़ पाए थे। प्रांतीय चुनाव जो वर्ष 1937 मैं हुआ था उसने मुस्लिम लिंग को 483 पृथक निर्वाचन क्षेत्रों मे से सिर्फ 109 पर जीत हासिल हुई और मुस्लिम लिंग को कुल मुस्लिम मतों का सिर्फ 4.6 प्रतिशत मिला था। एक और पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत में मुस्लिम लिंग एक भी स्थान पर विजय नहीं बन पाया था, तो दूसरी और पंजाब के 84 आरक्षित चुनाव क्षेत्रों में से सिर्फ दो और सिंध के 33 में से केवल तीन स्थान पर ही विजय बन पाया था । मुस्लिम चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन भी निराशाजनक रहा था। कांग्रेस ने 482 आरक्षित सीटों में से सिर्फ 58 सिटो के लिए चुनाव लड़ा था। और उसमें से केवल 26 सीटों पर विजय बना था।

मुस्लिम लीग ने कांग्रेस से प्रांतीय मंत्रिमंडल में सीटों के निर्धारण के विषय पर समझौता करने का प्रयत्न किया, परंतु कांग्रेस ने बड़ी बेरहमी से उनके प्रस्ताव को नकार दिया। साथ ही मोहम्मद जिन्ना को सलाह दी कि वे सत्ता में भागीदारी चाहते हैं, तो सबसे पहले मुस्लिम लिंग को कांग्रेस में शामिल कर दे। कांग्रेस के मामूली प्रदर्शन के बावजूद भी उसमें अहंकार आ चुका था। कांग्रेस अपने आप को संपूर्ण भारत का प्रतिनिधि मानती थी। और मुस्लिम लीग को सिर्फ उच्च मध्यम वर्ग के लोगों के एक गुट के रूप में देखती थी।

मुस्लिम लिंग के प्रस्ताव को नकारने के बाद जिन्ना ने यह प्रचार करना शुरू कर दिया था, कि कांग्रेस ब्रिटिश सरकार से हाथ मिलाकर भारत पर फिर से हिंदू राज कायम करना चाहते हैं। जिसके साथ ही वे भारत में से इस्लाम को खत्म कर देना चाहते हैं। सांप्रदायिक वादियों को पता चल गया था, कि अगर उनको अपना अस्तित्व बनाए रखना है तो गरमवादी जनाधारित राजनीतिक की सहायता लेनी पड़ेगी।

उग्रवादी सांप्रदायिकता का विकास

उग्रवादी सांप्रदायिकता का विकास वर्ष 1937 के बाद धृणा, भय और अतार्किकता की राजनीति की वजह से हुआ था। मोहम्मद जिन्ना ने मुस्लिम लिंग को और भी मजबूत बनाने के लिए अलग-अलग असंतुष्ट मुस्लिम दलो और समुदायों को मुस्लिम लिंग में शामिल करना शुरू कर दिया। जिसके परिणाम रूप वर्ष 1927 में मुस्लिम लिंग की सदस्य संख्या 1330 से बढ़कर वर्ष 1939 आते आते लाखों की हो गई थी। मुस्लिम लिंग की सदस्य संख्या बनने के बाद से मोहम्मद जिन्ना ने कांग्रेस को हिंदुओं की पार्टी कह कर बुलाया और गांधीजी के रामराज को हिंदू राज से तोलने लगे।

अनेक कारणों की वजह से उग्रवादी सांप्रदायिकता का विकास हुआ था। वर्ष 1947 के चुनाव के बाद से कांग्रेस प्रमुख राजनीतिक शक्ति के रूप में अस्तित्व में आई थी। इसके बाद से जमींदारों और सुदखोरो की पार्टियों का विनाश हो गया था। राष्ट्रीय आंदोलन की आर्थिक राजनीतिक नीतियों की वजह से भारत के नव युवा, मजदूर वर्ग और किसान तेजी से वामपंथ की तरफ आगे बढ़ रहे थे। कांग्रेस में बढ़ रही सदस्य संख्या के कारण जमीदार और भुस्वामी चिंतित हो गए थे। जिसकी वजह से वे अपने अपने स्वार्थों की रक्षा करने के लिए सांप्रदायिक समुदायों का सहारा लेने लगे।

पश्चिम पंजाब के बड़े जमीदार और मुस्लिम नौकरशाह यूनियनिस्ट पार्टी को छोड़कर मुस्लिम लिंग मे शामिल होने लगे। बंगाल के मुस्लिम जमींदारों और भूस्वामीयो भी मुस्लिम लिंग में शामिल होने लगे। उत्तर भारत और पश्चिम भारत के हिंदू जमीदारों, भू स्वामियों, व्यापारियों और साहूकारों ने हिंदू सांप्रदायिक समुदायों का सहारा लेना शुरू कर दिया। वर्ष 1932 के सांप्रदायिक निर्णय और वर्ष 1935 के सरकार अधिनियम द्वारा मुस्लिम लिंग की अधिकांश की मांग को पूरा कर देने की वजह से सांप्रदायिकता में विकास हुआ।

मोहम्मद जिन्ना ने कांग्रेस के शासन का लगातार विरोध जारी रखा। उसने कांग्रेस पर आक्षेप लगाने शुरू कर दिए। उसने आरोप लगाते हुए कहा था कि कांग्रेस मुसलमानों के प्रति निर्दयी है और क्रोध तथा शत्रुता भरी नजर से मुसलमानो को देखती है। यहां तक कि उसने ब्रिटिश सरकार पर भी मुसलमानों के शोषण के लिए आरोप लगाया था। सभी प्रांतों के मुसलमानों को मोहम्मद जिन्ना ने विश्वास दिलाया कि मुस्लिम संप्रदाय का विकास सिर्फ मुस्लिम लिंग के हाथों में ही है।

द्वी राष्ट्र का सिद्धांत

वर्ष 1937 में मुस्लिम लीग ने धृणा और उत्तेजना का प्रचार किया था। जिसकी वजह से हिंदू सांप्रदायिक समुदायों का प्रभावित होना स्वाभाविक था। हिंदू महासभा के वी.डी सावरकर ने हिंदू राष्ट्र का नारा दिया था। उन्होंने हिंदुओं को समझाया था, कि मुसलमान हिंदुओं को पदमर्दीत करना चाहते है। और हिंदुओं को अपने ही देश में गुलाम की तरह रखना चाहते हैं। वर्ष 1939 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संघचालक ने मुस्लिम संप्रदाय तथा अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों को चेतावनी दी थी, कि हिंदुस्तान के गैर हिंदुओ को या तो हिंदू संस्कृति और भाषा का स्वीकार करना होगा या तो हिंदू राष्ट्र के आधीन बनकर रहना पड़ेगा। हिंदू संप्रदाय का मानना था कि हिंदू एक अलग राष्ट्र है और भारत हिंदुओं का देश है। इस प्रकार भी द्वी-राष्ट्र के सिद्धांत का उद्भव हुआ।

द्वितीय विश्वयुद्ध और सांप्रदायिकता

द्वितीय विश्वयुद्ध का प्रारंभ के बाद 1 सितंबर 1939 को सांप्रदायिकता पर ब्रिटिश हुकूमत की निर्भरता आगे बढ़ गई। कांग्रेस के मंत्रिमंडल ने एक साथ त्यागपत्र देखकर मांग की कि ब्रिटिश हुकूमत युद्ध के पश्चात पूर्ण स्वाधीनता तथा सरकार में प्रभावशाली रूप से भूमिका देने की तत्काल घोषणा प्रगट करेगा। मुस्लिम लिंग में इस दिन को मुक्ति दिवस के रूप में मनाया। मुसीबत के समय पर ब्रिटिश सरकार ने वफादारी दिखाई थी, जिसकी वजह से मोहम्मद जिन्ना ने संभव रियासत उसे देने का वादा किया था। ब्रिटिश हुकूमत के शह पर, मोहम्मद जिन्ना ने कांग्रेस की विरुद्ध में मुसलमान संप्रदाय के लोगों को भडकाया था और मुसलमानों का ध्रुवीकरण करवाया था। मोहम्मद जिन्ना ने वर्ष 1940 में कांग्रेस का विरोध करते हुए अलीगढ़ के विद्यार्थियों को बताया था, कि मिस्टर गांधी चाहते हैं कि हिंदू राज के चलते मुसलमान का नामोनिशान मिटा दे और उसे प्रजा बनाकर रखें।

वर्ष 1941 में कराची की एक सभा में सिंध के एक प्रमुख नेता एम.एच गजदर ने कहा था, कि अगर हिंदू कायदे का उल्लंघन करते हैं तो उन्हें उसी तरह खत्म कर दिया जाएगा जैसे जर्मनी में यहूदियों को किया था। कांग्रेस के विरुद्ध व्यापक आंदोलन जेड.ए.सुलेरी, एफ.एल.दुर्रानी और फैज-उल-हक जैसे मुसलमान संप्रदाय के लोगों ने चलाया था। मौलाना आजाद मुसलमान थे पर कांग्रेस के सदस्य थे जिसके कारण उन्हें कांग्रेस के नुमाइशी बच्चे और इस्लाम के गद्दार की उपाधि दी गई थी।

अलग राष्ट्र की मांग

26 मार्च 1940 को लाहौर के अधिवेशन में ब्रिटिश की सहायता से मुस्लिम लिंग ने एक प्रस्ताव को प्रस्तुत किया। जिसमें मुसलमानों के लिए एक अलग राष्ट्र की मांग का सिद्धांतीक मंजूरी प्रदान की गई थी। लाहौर अधिवेशन के इस प्रस्ताव में विभाजन और पाकिस्तान का उल्लेख नहीं किया गया था। प्रस्ताव में सिर्फ अनिश्चित भविष्य में मुस्लिम बहुल प्रांतों से स्वतंत्र राज्यों के गठन की बात की गई थी। मोहम्मद जिन्ना ने हिंदुओं और मुसलमानों को दो विभिन्न राष्ट्रों बताते हुए दोनों के लिए अलग-अलग राजनीतिक आत्मविर्णय की जरूरीयात पर जोर दिया। मोहम्मद जिन्ना ने चौधरी रहमत अली के द्वारा कराची बैठक में प्रस्तुत कि गइ पाकिस्तान की अवधारणा को स्वीकार किया।

अगस्त मे मोहम्मद जिन्ना ने प्रस्ताव, क्रिप्स मिशन, शिमला सम्मेलन, और मंत्रिमंडल शिष्ट परिषद के प्रस्तावों में अलग पाकिस्तान की मांग की स्वीकार करने की संभावना तराशि। 16 अगस्त 1946 के दिन मोहम्मद जिन्ना और मुस्लिम लिंग में बड़े पैमाने पर भारत में अलग-अलग जगहों पर दंगे करवाकर भय का वातावरण कायम किया। दंगों की वजह से होने वाले नुकसान को ध्यान में रखकर कांग्रेस ने मुस्लिम लिंग के अलग पाकिस्तान की मांग को स्वीकार कर लिया। परिणाम रूप 3 जून को माउंटबेटन योजना के अनुसार 14 अगस्त 1947 को मुस्लिम बहुल प्रांतों जैसे कि पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान, उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत और बंगाल को मिलाकर नए राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान का गठन किया गया।

Last Final Word

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