सांप्रदायिकता का अर्थ धार्मिक संप्रदाय से अलग दूसरे संप्रदाय के प्रति उदासीनता, अपेक्षा, दयादृष्टि और घृणा विरोधी आक्रमक भावना होता है। सांप्रदायिकता की वजह से कई बार जान माल की हानि पहुंचती है। व्यापक रूप से सांप्रदायिकता एक संकीर्ण मानसिक विचारधारा है जो अपने समूह के अलावा किसी को श्रेष्ठ नहीं मानती। सांप्रदायिकता धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्रीय जैसे विषयों पर हो सकती है। परंतु एक निश्चित अर्थ में बात करें तो सांप्रदायिकता का आधार धर्म पर रहा है। आधुनिक भारत में सांप्रदायिकता समाज में जातिवाद के रूप में फैली हुई है।
प्रोफेसर बलराम के मत के अनुसार सांप्रदायिकता कुछ धार्मिक वर्गों को राष्ट्रीय वर्ग और तथा दूसरे धार्मिक वर्गों के कीमत पर अपने विशेष राजनीतिक अधिकारों और अन्य अधिकारों की मांग करवाता है।
सांप्रदायिकता का मतलब संकीर्ण मनोवृत्ति होता है। सांप्रदायिकता की भावना के कारण व्यक्ति को अपने धर्म के प्रति अंधभक्ति उत्पन्न होती है, और दूसरे धर्मों के प्रति विद्रोह की भावना जागृत होती है। मौलिक रूप में संप्रदायवाद विश्वास का दूसरा नाम है। क्योंकि व्यक्ति किसी एक विशेष धर्म का आचरण करता है। इसी लिए एक ही धर्म के आचरण करने वालो के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक लाभ में भी साम्यता होती है। एक ही देश के अलग-अलग और प्रमुख संप्रदायों के बीच में अलगाव और देश की राजनीति को, सांप्रदायिक राजनीति के नाम से जाना जाता है ।
भारत में सांप्रदायिकता के विकास के कारण पहले मुस्लिम सांप्रदायिकता का विकास हुआ। फिर उसके बाद मुस्लिम सांप्रदायिकता की प्रतिक्रिया के रूप में हिंदू सांप्रदायिकता का उदय हुआ।
सांप्रदायिक विचारधारा के चरण
भारत में मुख्य तीन चरण में सांप्रदायिक विचारधारा परिलक्षित है। पहले चरण की सांप्रदायिकता के अंतर्गत समुदाय के कुछ लोग एक विशेष धर्म का आचरण करते हैं। जिसकी वजह से उस धर्म के सभी अनुयायियों को समान रूप से सांसारिक तथा सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक लाभ मिलते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि भारत में हिंदू, मुसलमान, सिख और ईसाई जैसे विभिन्न और विशिष्ट समुदाय प्रचलित है। इन धर्मों के अनुयाई के आध्यात्मिक लाभ के साथ-साथ सांसारिक लाभ मे भी साम्यता देखने को मिलती है।
सांप्रदायिकता के दूसरे चरण की बात करें तो यह धारणा निहित होती है, कि किसी एक धर्म के आचरण करने वाले के सांसारिक लाभ यानी कि सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक लाभ, अन्य धर्म के आचरण करने वाले के लाभ से अलग होते हैं। भारत देश एक बहुभाषी समाज का देश है। जिसमें किसी एक धर्म के आचरण करने वाले व्यक्ति के हीत, दूसरे धर्म के आचरण करने वाले व्यक्ति के सांसारिक हीत से अलग नहीं होते।
तीसरे चरण में सांप्रदायिकता का प्रवेश तब होता है, जब यह मान लिया जाता है, कि अलग-अलग धर्म और अलग-अलग संप्रदायों के आचरण करने वाले व्यक्तियो के लाभ एक दूसरे के विरोध में होते हैं। सांप्रदायिकता के तीसरे चरण में अलग-अलग धर्म और अलग-अलग समुदायों के अनुयायियों के द्वारा अलग-अलग धार्मिक समुदायों के लाभों को परस्पर विरोधी और शत्रुतापूर्वक देखा जाता है।
सांप्रदायिकता के पहले चरण में धार्मिक पहचान पर ज्यादा भार दिया जाता है। जिसकी वजह से धर्म पर आधारित सामाजिक और राजनीतिक समुदायों की धारणा का आरंभ होता है। दूसरे चरण को उदय सांप्रदायिकता अथवा नरमपंथी सांप्रदायिकता कहा जा सकता है। क्योंकि संप्रदायिकता के दूसरे चरण में संप्रदायवादी उदारवादी, लोकतांत्रिक, मानवतावादी, और राष्ट्रीयतावादी मूल्यों में विश्वास रखता है। तीसरे चरण में आते-आते सांप्रदायिकता उग्र हो जाती है। उग्रता के चरण में सांप्रदायिकता फासीवादी तौर तरीके अपना लेती है।
सांप्रदायिकता के तीसरे उग्रवादी चरण में यह दावा किया जाता है कि दो अलग-अलग धार्मिक समूह हो अथवा समुदायों के लाभ में कभी भी साम्यता नहीं होती। और अलग-अलग धर्मों के अनुयायियों के सांसारिक हितों में निश्चित रूप से टकराव होता है। भारत में सांप्रदायिकता के तीनों चरण भीन्न भीन्न समय पर आए थे।
भारत में सांप्रदायिकता की ऐतिहासिकता
कोई एक देश में एक से ज्यादा धर्मों का होना सांप्रदायिकता के उद्भव के लिए मुख्य कारण नहीं होता। किसी भी बहुधर्मी देश में सांप्रदायिकता का उदय हो एसा जरूरी नहीं है। धर्मे एक विश्वास प्रणाली का नाम है। लोग द्वारा इसका पालन व्यक्तिगत विश्वास के अंग के रूप में होता है। संप्रदायवाद धर्म पर निर्धारित सामाजिक और राजनीतिक पहचान का वैचारिक नाम है। संप्रदायवाद का कारण धर्म नहीं हो सकता और ना ही उसकी वजह से प्रेरित हो सकता है। दूसरे शब्दों में कहें तो संप्रदायवाद धर्म का राजनीतिक व्यापार है।
भारत देश में शिक्षा का अभाव था और भारत के लोगों में बाह्य जगत से जुड़ी चेतना विकसित नहीं थी। जिसके कारण धार्मिकता ने सांप्रदायिकता के लिए उत्प्रेरक भूमिका निभाई।
अक्सर कहा जाता है, कि सांप्रदायिकता प्राचीन और मध्यकालीन अवशेष है। किंतु ऐसा बिल्कुल नहीं है। हालांकि सांप्रदायिकता प्राचीन और मध्यकालीन विचारधारा का इस्तेमाल करती थी, और उनके अंतर्गत चल रही थी, परंतु मूल रूप से सांप्रदायिकता एक आधुनिक विचारधारा और राजनीतिक प्रवृत्ति थी। सांप्रदायिकता सामाजिक समूह वर्ग और ताकतों की सामाजिक अपेक्षाओं को सामने लाकर उनकी राजनीतिक आवश्यकता को पूर्ण करती थी।
भारत में सांप्रदायिकता का विकास आधुनिक राजनीति के विकास से संबंधित है। भारतीय इतिहास के आधुनिक समय में सांप्रदायिकता की सामाजिक जड़े तथा उनके सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक उपदेशों को देखा जा सकता है।
ब्रिटिश हुकूमत के शासन से पहले अनेक सदियों तक भारत पर मुसलमानों ने शासन किया है। अनेक सदियों तक एक दूसरे के साथ रहने की वजह से हिंदू और मुसलमान दोनों संप्रदाय के रहन सहन, रीति रिवाज और परंपरा मैं काफी हद तक समानता आ गई थी। साथ ही हिंदू और मुसलमान अलग-अलग धर्मों के होते हुए भी दोनों में आश्चर्यजनक एकता।
इससे कहा जा सकता है कि धर्म लोगों के जीवन का अभिन्न अंग है। भारत में धर्म को लेकर कभी-कभी हिंदू और मुसलमान संप्रदाय में झगड़े होते थे। परंतु 1870 के दशक के पहले तक भारत में सांप्रदायिक विचारधारा और सांप्रदायिक राजनीति का अस्तित्व नहीं देखने को मिला था।
वर्ष 1857 के सिपाही विद्रोह में हिंदू और मुसलमान दोनों ही संप्रदायों के लोगों ने एक साथ मिलकर अंग्रेजो के खिलाफ संघर्ष किया था। और सभी की सम्मति से अंतिम मुगल बादशाह को नेता बनाया गया था।
भारत में सांप्रदायिकता के कारण
सांप्रदायिकता का संबंध धार्मिक स्तर पर अलगाववाद और कट्टरता से रहा है। भारत में औपनिवेशिक नीतियों के बाद से सांप्रदायिकता का विकास हुआ है। तथा औपनिवेशिक नीतियों के विरुद्ध के संघर्ष करने की जरूरीयात ने सांप्रदायिकता का उदय किया था।
भारत में सांप्रदायिकता का विकास जनता और उनकी भागीदारी पर निर्धारित एक नई, आधुनिक राजनीति का परिणाम है। आधुनिक राजनीति में भारत के लोगों से व्यापक संबंध बनाने, लोगों की आस्था जितने और नई पहचान बनाने की जरूरीयात ने सांप्रदायिकता को जन्म दिया था। सांप्रदायिकता का कार्य आधुनिक संप्रदायवादी राजनीतिक सामाजिक समूहो, वर्गो और ताकत तथा सामाजिक अपेक्षा को प्रस्तुत करना और उनकी राजनीतिक आवश्यकता को पूर्ण करना है। समकालीन आर्थिक ढांचे ने सांप्रदायिकता का उदय हुआ था। जिसकी वजह से सांप्रदायिकता के विकास के साथ साथ प्रचार भी हुआ था।
उभरते हुए मध्यमवर्ग पर सांप्रदायिकता का सामाजिक आधार अवलंबित था, जो तत्कालीन समय में अपने धार्मिक लाभों के साथ साथ आर्थिक लाभों को भी खोज रहा था। सांप्रदायिकता की विचारधारा को सशक्त बनने का अवसर तब मिला, जब नए विचारों को ग्रहण करने, नई पहचानो और विचारधाराओं का उदय करने के लिए तथा संघर्ष को व्यापक बनाने के लिए, जनता पुरातन और पूर्व आधुनिक तरीकों के प्रति आसक्ति बनी। सांप्रदायिकता का संपूर्ण समर्थन संकीर्ण सामाजिक प्रतिक्रियावादी तत्वों ने किया था।
भारत जो धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से बहुलता धराता है, ऐसे देश में सांप्रदायिकता का विकास होना कोई आकस्मिक घटना नहीं हो सकती। भारत में सांप्रदायिकता का विकास अंग्रेजो के द्वारा अपने साम्राज्यवादी और औपनिवेशिक लाभों को पूरा करने के लिए बांटो और राज करो की नीति के अंतर्गत क्रमीक प्रक्रिया में हुआ था।
हकीकत में भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद की स्थापना के बाद से, जैसे ही लोगों में राजनीतिक और आर्थिक चेतना का विकास हुआ वैसे ही धार्मिक पहचान का संबंध राजनीतिक और आर्थिक बाबतो से जुड़े गया। एक धार्मिक समूह के अनुयायियों ने अपनी राजनीतिक और आर्थिक स्थिति की तुलना दूसरे धार्मिक समुदायों की राजनीतिक और आर्थिक स्थिती की। इस तुलना की प्रक्रिया में अगर किसी धार्मिक समूह को लगता था, कि उनकी राजनीतिक और आर्थिक साधना तक पहुंच दूसरे धार्मिक समूह की आशा से कम है, तो उस धार्मिक समूह का अनुसरण करने वाले लोगों में सांप्रदायिकता का जन्म होता था।
सांप्रदायिकता के उदय के सामाजिक आर्थिक कारण
भारत में सांप्रदायिकता का जन्म और विकास उपनिवेशवादी अर्थव्यवस्था की वजह से हुआ था। औपनिवेशिक शोषण के परिणाम स्वरुप भारतीय अर्थव्यवस्था एक ही स्थान पर ठहर गई थी। इसका प्रभाव खास करके भारतीय जनता के मध्य वर्ग के जीवन पर पड़ा था। जिसकी वजह से ऐसी परिस्थिति का निर्माण हुआ था जो भारतीय समाज के विभाजन और कहल तथा उसके गहरे रूपांतरण में सहाय कर सकती थी।
भारत की आर्थिक व्यवस्था में ठहराव आ जाने की वजह से सरकारी नौकरियां, वकालत और डॉक्टरी जैसे पेशो मे और उद्योग धंधे में भारी प्रतिद्वंदिता आ गई थी। आर्थिक व्यवस्था के ठहराव के बाद आर्थिक अवसरों का ज्यादातर हिस्सा हथियाने के लिए मध्यम वर्ग के लोग जाति, प्रांत और धर्म जेसी पहचान की सहायता लेते थे। इस प्रकार सांप्रदायिकता के मदद से कुछ लोगों को तत्कालीन सहायता मिली थी। आर्थिक अवसरों के इस समय में सांप्रदायिकता की जड़ें मध्यम वर्ग में स्थापित हो चुकी थी। सांप्रदायिकता के सहारे मध्यम वर्ग ने अपने लाभ तथा अपेक्षाओं को व्यक्त किया था।
मुसलमान वर्ग का शिक्षा, व्यापार और उद्योग में अपेक्षाकृत पिछड़ापन सांप्रदायिकता में विकास लाया था। देश में शिक्षक मुसलमानों की कम संख्या, 19वीं सदी के पहले के 70 वर्षों में उच्च वर्ग के मुसलमान के द्वारा ब्रिटिश विरोधी रूढ़िवादी और आधुनिक शिक्षा के दुश्मन होने की वजह से थी। वर्ष 1874 से 1875 में बंगाल के स्कूलों में मुस्लिम बच्चों का भाग सिर्फ 29% था। जबकि बंगाल के स्कूलों मे हिंदू बच्चों का भाग 70.1% था। उच्च शिक्षा के बाबत में मुसलमान छात्र का भाग बहुत कम था। वर्ष 1875 में बंगाल के कॉलेज के छात्रों में 93.9% हिंदू छात्र और 5.4% मुस्लिम छात्र का भाग था। साक्षर मुसलमानों में अंग्रेजी भाषा का ज्ञान रखने वाले मुसलमान सिर्फ 1.50% और हिंदुओं में 4.40% थे।
मुस्लिम संप्रदाय में शिक्षा के अभाव के कारण आधुनिक पश्चिमी विचार-विज्ञान, लोक और राष्ट्रवाद उन तक नहीं पहुंचा था। जिसके कारण मुसलमानों में राजनीतिक चेतना का उदय नहीं हो पाया था। दूसरी तरफ हिंदुओं में अंग्रेजी और पश्चिमी शिक्षा को प्राप्त करने के लिए बड़ी संख्या में उत्साह प्रेरित हुआ था। जिसके फलस्वरूप नई शिक्षा पद्धति में प्रवेश करके हिंदू संप्रदाय के लोग ने सरकारी नौकरियां और दूसरे अन्य आर्थिक हित के पदों को प्राप्त किया था।
उस वक्त भारत में सरकारी नौकरियों और व्यवसाय के लिए आधुनिक शिक्षा का ज्ञान होना अत्यंत जरूरी था। परंतु धार्मिक रूढ़िवादिता, नवीन शिक्षा नीति और शिक्षा में अंग्रेजी भाषा के प्रचार की वजह से मुसलमान संप्रदाय पीछे रह गया।
वर्ष 1858 में घोषणा करने में आई थी कि, सार्वजनिक पदों पर नियुक्ति के विषय में सरकार जाति और धर्म का भेदभाव नहीं करेगी। फिर भी सरकार ने मुसलमान समुदाय के लोगों को राजकीय पदों से दूर करके, उन्हें शिक्षा तथा आर्थिक क्षेत्र में लताड़कर बुरी तरह से दंडित किया था। भारत में सरकारी उच्च पद पर यूरोपियन को और छोटे पद पर हिंदुओं को नौकरी दी गई थी। मुसलमानों को सरकारी नौकरियों से दूर रखने की वजह से हिंदू-मुसलमान दोनों समुदायों के बीच में आर्थिक और सांस्कृतिक दरार पैदा हो गई थी।
वर्ष 1871 में बंगाल में सरकारी अधिकारियों के पद पर मुसलमान सिर्फ 5.9% और हिंदू 41% जितने थे। हालांकि बस 1882 में संयुक्त प्रांत की 35% सरकारी नौकरियों को मुसलमान के लिए आरक्षित की गई थी और ऊंचे तथा प्रभावशाली पदों पर भी मुसलमानों को प्रतिनिधित्व दिया गया था। परंतु जब वर्ष 1883 में अंग्रेजो के द्वारा राजभाषा अरबी और फारसी को बदलकर अंग्रेजी कर दी गई तो शक्ति और प्रभाव वाले पद मुसलमानों से छीन लिए गए और हिंदू संप्रदाय के लोगों को दिए जाने लगे। हिंदूओ ने नए वातावरण में तेजी से अपना वर्चस्व स्थापित कर लीया। वर्ष 1857 में कार्यपालिका और न्यायपालिका के नीचे पद पर मुसलमानों का भाग 63.9% था। हालांकि वर्ष 1886 से 1887 आने तक कम होकर 45.1% हो गया था। और वर्ष 1913 तक गिरकर 34.7% हो गया था। जबकि हिंदुओं का उस समय का भाग 24.1% था, जो बढ़कर 50.3% और आगे जाकर 60% हो गया था। दूसरे शब्दों में कहें तो आधी सदी के अंदर सरकारी पदों में हिंदू-मुसलमान की स्थिति पलट गई थी। भू स्वामियों, जमींदार, हिंदुओं और मुसलमानों सभी अपने अपने स्वार्थ के लिए ब्रिटिश साम्राज्य का समर्थन करते थे।
हकीकत में मुसलमान 19वीं सदी के अंतिम वर्षों में किसी भी तरह से एक स्पष्ट राजनीतिक विचार से एक समान विचार वाले समुदायिक को नहीं बना पाया था। वर्ष 1888 में भारत की कुल आबादी में से मुसलमानों की आबादी 19.7% थी। परंतु मुसलमानों की आबादी के वितरण में राजनीतिक अंतर था। जिसमें संयुक्त प्रांत में 13% से थोड़े ज्यादा, पंजाब में 51% से थोड़े ज्यादा, और बंगाल के विस्तार में करीबन 49.2% जितने थे। इस प्रकार की असमानता के साथ-साथ भारतीय उपमहाद्वीप में रहने वाले मुस्लिम संप्रदाय की स्थिति और संरचना में भी अनेक भेद थे। जैसे कि सिया सुन्नी के भेद, भाषा संबंधी अलगता और आर्थिक विषमता है।
दक्षिण एशियाई इस्लाम में एक समरस धार्मिक राजनीतिक समुदाय की नींव रखी गई। इसके बाद से ही भारतीय मुसलमानों का एक विभाग अपने आप को एकजुट समाज और हिंदुओं से अलग उपनिवेशी छवि में देखने लगा। इसके पश्चात मुस्लिम संप्रदाय के लोग समुदायिक पहचान बनाने के लिए और मुस्लिम राष्ट्र का स्वरूप तैयार करने के लिए जागृत हो गए। मुसलमान संप्रदाय के उच्च वर्ग और प्रतिक्रियावादी जमीदारों ने खुद के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक लाभ का संरक्षण करने के लिए सांप्रदायिकता को राजनीतिक हथियार के रूप में उपयोग किया था।
मुसलमानो के उच्च वर्गीय और प्रतिक्रियावादी मुसलमानों ने वर्गीय चेतना को जागृत किया और धर्म के माध्यम से मुस्लिम समुदाय को एकजुट किया। प्रतिक्रियावादी मुसलमानों ने प्रचार के दौरान मुसलमानों को बताया था कि उनके आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक अस्मिता का संरक्षण तभी संभव है, जब मुसलमानों का एक अलग राष्ट्र हो। प्रतिक्रियावादी मुसलमानों ने चालाकी से मुसलमानों की आर्थिक दुर्दशा और धार्मिक अस्मिता को एक अलग राष्ट्र का नाम देखकर मुसलमान संप्रदाय के निम्न वर्ग और मध्यम वर्ग की सहानुभूति हासिल कर ली।
ब्रिटिश की बांटो और राज करो की नीति
वर्ष 1857 में अंग्रेजो के खिलाफ हिंदू और मुसलमान दोनों के विद्रोही सैनिकों ने साथ मिलकर ब्रिटिश साम्राज्य का विरोध किया था। इस विद्रोह में ब्रिटिश सरकार ने मुसलमानों की भूमिका को देखकर उनके विरोध में भेदभाव पूर्ण नीति को अपनाना शुरू कर दिया और हिंदुओं का पक्ष लेने लगे। सरकारी पदों पर मुसलमानों की नियुक्ति पर वर्ष 1857 के बाद प्रतिबंध लगाया गया और मुस्लिम संप्रदाय के लोगों को संदेश भरी दृष्टि से देखा जाने लगा।
मुसलमान के साथ हो रहे भेदभाव की वजह से उनको लगने लगा कि, मुसलमानों के विरोध में हिंदुओं और अंग्रेजों के बीच में एक प्रकार का गठन हो गया है। इसी के साथ हिंदू और मुसलमानों के बीच में संदेह और अविश्वास की भावना पैदा हो गई। वर्ष 1870 के बाद भारत में भारतीय राष्ट्रीयता का उदय हुआ, जिसकी वजह से अंग्रेजों और मुसलमानों के बीच के संबंध धीरे धीरे अच्छे होनेे लगे।
विलियम हंटर ने दी इंडियन मुसलमान की अपनी किताब में एंग्लो मुस्लिम मित्रता के विषय पर जोर देकर आंग्ल मुस्लिम मित्रता की नींव रखी थी।
भारत के लोगों में राष्ट्रीयता की भावना फैल चुकी थी, और दिन प्रतिदिन उसमें विकास हो रहा था। भारतीयों में राष्ट्रीय भावना के विकास को रोकने के लिए ब्रिटिश सरकार ने भारत में बांटो और राज करो की नीति को लागू किया। बांटो और राज करो की नीति के अंतर्गत भारत की राजनीति में सांप्रदायिकता और अलगाववादी प्रवृत्तियों को आगे लाने के लिए मुसलमान ने जमींदारों, भू स्वामियों और नव शिक्षित वर्गों को अपने तरफ करने का निर्णय ले लिया।
ब्रिटिश सरकार ने बंगाली वर्चस्व के नाम पर प्रांतवाद को फैलाया, गैर ब्राह्मण जातीयों को ब्राह्मणों के खिलाफ और निचली जातियों को उच्च जातियों के विरुद्ध में खड़ा कर देने के लिए जाति प्रथा का इस्तेमाल किया।
ब्रिटिश सरकार ने संयुक्त प्रांत और बिहार में प्रचलित उर्दू भाषा के स्थान पर हिंदी को राजभाषा के रूप में घोषित कर दीया। जिसकी वजह से खुलकर आंदोलन करने में आया। अंग्रेजों ने हिंदुओं, मुसलमानों और सिखों को एक दूसरे से अलग समुदाय के रूप में देखा और सांप्रदायिक नेताओं को उनके धर्म के अनुयायियों का प्रतिनिधि माना था। ब्रिटिश सरकार ने भारत में सांप्रदायिकता के विकास के लिए प्रेस, पुस्तिकाओं ,पोस्टरों, साहित्य और सार्वजनिक मंच पर सांप्रदायिक विचार और सांप्रदायिक धरन को चलाने के लिए छूट दे रखी थी।
औपनिवेशिक सरकार सब कुछ जानते हुए भी धर्म के माध्यम पर साक्षरता और व्यवसाय संबंधी आंकड़ों का वस्तुनिष्ठ चित्र भारत के लोगों के सामने रखा था। 19वीं सदी के अंतिम वर्षों में जब धार्मिक समूहों का वापिस गठन करने में आया तो हिंदुओं की लामबंदी हुई और मुसलमानों की निंदा करने में आई थी। जिसके परिणाम स्वरूप मुसलमान भी अपने धर्म और इतिहास के अतीत के माध्यम से मुसलमानों की सामुदायिक पहचान की खोज करने लगे।
पंजाब में हुए आर्य समाज के आक्रमक आंदोलन ने 19वीं सदी में मुसलमानों को जवाबी लामबंदी के लिए प्रोत्साहित किया, तो देहातों में सज्जादानशीनो, परों और उल्मा का सहारा लेकर मुसलमानों ने ग्रामीण राजनीति में पैठ की।
भारत में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना वर्ष 1885 में हुई थी। इसकी स्थापना के बाद ब्रिटिश सरकार ने राष्ट्रवादी ताकतों को कमजोर करने और मुस्लिम समुदाय का विश्वास जीतने के लिए मुस्लिमों को नौकरियों में आरक्षित सीटें और अलग-अलग सेवाओं में प्राथमिकता तथा दूसरी सुविधाएं देने का फैसला किया।
ब्रिटिश सरकार की नीति ने मुसलमानों को इतनी लालच दी थी, कि सर सैयद अहमद खान जैसे व्यक्ति भी अंग्रेजों की बांटो और राज करो की नीति से प्रभावित हो गए थे। जिसकी वजह से सर सैयद अहमद खान ने मुसलमानों को हिंदुओं से दूर रहने और अंग्रेजों से नज़दीकियां बड़ा ने के बारे में प्रेरित किया।
ब्रिटिश सरकार ने अपनी बांटो और राज करो की नीति के अनुसार बीसवीं सदी के पहले दशक में ही बंगाल को विभाजित कर दिया था और मुस्लिम लीग जैसे सांप्रदायिक संगठन का निर्माण किया था।
वर्ष 1909 में ब्रिटिश सरकार ने भारत में मार्ले मिंटो सुधार अधिनियम लागू किया। इस अधिनियम के चलते मुस्लिमों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र की व्यवस्था की गयी थी। पृथक निर्वाचन क्षेत्र की व्यवस्था के कारण हिंदू और मुसलमानों के बीच में दरार पड गई। वर्ष 1919 में एक और अधिनियम लागू किया गया। जिसकी वजह से हिंदू और मुसलमानों की बीच की दरार बड़ी हो गई। इन घटनाओं को देखकर कह सकते हैं, कि ब्रिटिश सरकार की विभाजन नीतियों की वजह से भारत में सांप्रदायिकता का विकास हुआ था।
सर सैयद अहमद खान की भूमिका
सर सैयद अहमद खान की भूमिका धार्मिक अलगाववाद के विकास में महत्वपूर्ण रही है। सर सैयद अहमद खान अपने सार्वजनिक जीवन के प्रारंभिक समय में एक कट्टर राष्ट्रवादी थे। शुरुआती समय में सर सैयद अहमद खान का दृष्टिकोण बुद्धिमत्तापूर्ण, दूरदर्शी और सुधारवादी था। परंतु जीवन के आखिरी सालों में उनकी राष्ट्रीयता सांप्रदायिकता में तब्दील हो गई। कांग्रेस की स्थापना के पहले सर सैयद अहमद खान ने असांप्रदायिकता के आधार पर अनेक शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की थी।
उनके जीवन के मुख्य दो लक्ष्य थे। पहला उद्देश्य ब्रिटिश सरकार और मुस्लिमों के बीच वर्ष 1857 के विद्रोही आंदोलन के चलते उत्पन्न हुए अविश्वास को खत्म करना था। दूसरे उद्देश्य में मुसलमानों के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए सभी मुसलमानों तक आधुनिक शिक्षा का प्रचार करना था। साथ ही मुसलमानों को सरकारी पदों के लिए योग्य बनाना था।
उनका कहना था कि मुसलमान अल्पसंख्यक होने के बावजूद उनका एक भूतपूर्व शासक वर्ग हुआ करता था। जिसकी वजह से मुसलमानों को सत्ता में विशेष प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए और राजनीतिक व्यवस्था के साथ मुसलमानों का एक विशिष्ट संबंध स्थापित होना चाहिए।
सर सैयद अहमद खान ने मुसलमानों और ब्रिटिश सरकार के बीच सद्भावना उत्पन्न करने के लिए भारत के वफादार मुसलमान नामक पत्र में अनेक लेख लिखें। उन्होंने मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा के प्रभाव को बढ़ाने के लिए अनेक संस्थाएं स्थापित की। हकीकत में सैयद अहमद खान मुस्लिम-अंग्रेज गठबंधन का प्रयास, मुस्लिमों के हितो के संरक्षण के लिए कर रहे थे, ना कि हिंदुओं के विरुद्ध उन्हें भड़काने के लिए। परंतु उनके इस प्रश्नों की वजह से हिंदुओं और मुसलमानों के बीच में दरार पैदा कर दी थी। हालांकि सर सैयद अहमद खान हिंदुओं और मुसलमानों को भारत माता के दो नेत्र के रूप में देखते थे।
सर सैयद अहमद खान की राजनीतिक विचारधारा इस विचार के अंतर्गत थी, कि भारतीय समाज परस्पर अलग-अलग विरोधी समुदायों का जमघट है, परंतु जब भारत को आजादी मिलेगी तो आजादी के बाद कांग्रेस के नेतृत्व में भारत के सरकार का निर्माण होगा, ऐसा होने से भारत पर स्वाभाविक रूप से हिंदुओं का वर्चस्व होगा और मुसलमानों को दूसरे दर्जे के नागरिक के रूप में रखा जाएगा। सर सैयद अहमद खान की इस विचारधारा की हिंद-मुसलमान की एकता पर विपरीत असर हुई और कांग्रेस के अधिवेशन में मुसलमान सदस्य की संख्या धीरे-धीरे कम होती गई।
वर्ष 1888 में कांग्रेस के द्वारा एक नियम बनाया गया था। इस नियम के चलते यदि हिंदू अथवा मुसलमान प्रतिनिधियों का भारी बहुमत तैयार करता है तो किसी भी प्रकार का प्रस्ताव पारित नहीं होगा।
कांग्रेस के वर्ष 1892 और 1909 के बीच में हुए अधिवेशन में आए हुए प्रतिनिधियों में मुंबई के बदरुद्दीन तैयब को छोड़कर करीबन 90% हिंदू प्रतिनिधि थे, और सिर्फ 6.5% प्रतिनिधि मुसलमान थे। कांग्रेस के इस अधिवेशन में आए हुए हिंदुओं में भी करीबन 40% ब्राह्मण और बाकी के सवर्ण हिंदू थे। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कांग्रेसी राष्ट्रवाद से मुसलमानों को दूर रखने का श्रेय सर सैयद अहमद खान को जाता है।
उनके विचार नि:संदेह, अवैज्ञानिक और वास्तविकता से विमुख थे। हालांकि हिंदू और मुसलमान भीन्न धर्म है परंतु उनके आर्थिक और राजनीतिक हीत अलग नहीं है। अगर हम एक ओर बंगाली मुसलमान और पंजाबी मुसलमान की तुलना करें तथा दूसरी ओर बंगाली मुसलमान और बंगाली हिंदू की तुलना करें तो दोनों में से बंगाली मुसलमान और बंगाली हिंदुओं में सबसे ज्यादा समानता देखने को मिलेगी। सर सैयद अहमद खान के नेतृत्व को उत्तर भारत के मुसलमानों ने कभी भी संपूर्ण रूप से स्वीकारा नहीं था।
भारत के इतिहास का सांप्रदायिक लेखन
भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को बनाए रखने के लिए अंग्रेजों के इतिहासकारों ने भारत के इतिहास की ऐसी विकृति व्याख्या बनाई थी, की जिसकी वजह से हिंदुओं और मुसलमानों में सांप्रदायिकता की भावना का उदय हुआ।
ब्रिटिश साम्राज्य के इतिहासकारों तथा उनका अनुकरण करने वाले भारत के इतिहासकारों ने प्राचीन भारत को हिंदू काल के रूप में तथा मध्य काल को मुस्लिम काल के रूप में दर्शाया था। उन्होंने तुर्क, अफगान और मुगल शासकों के शासनकाल को मुस्लिम शासन की संज्ञा दी थी।
अगर ऐसा होता तो मुसलमान के लोग भी हिंदुओं की तरह पीड़ित और करो के मे डूबे होते। दोनों संप्रदाय के लोगों को यानी कि हिंदुओं और मुसलमानों को, शासक वर्ग एक समान रूप से अपमानित करता था। इन सब के बावजूद भी सांप्रदायिक इतिहासकारों ने यह अनैतिहासिक घोषणा की थी, कि मध्यकालीन भारत में सभी मुसलमान शासक थे और सभी हिंदू शासित थे।
हकीकत में दूसरे देशों के मापक भारत में भी प्राचीन और मध्यकालीन युग में राजनीति का उद्देश्य आर्थिक और राजनीतिक लाभ था, ना की धार्मिक विचार। शासकों और उनके विरोधियों ने धर्म का इस्तेमाल अपने भौतिक हीतों और महत्वाकांक्षा को सबसे छुपाने के लिए किया था। सांप्रदायिक इतिहासकारों ने भारत के शासकों के बीच में हो रहे संघर्षों को हिंदू-मुस्लिम संघर्ष का नाम देकर दोनों संप्रदाय में सांप्रदायिकता का विकास किया था।
गरम पंथी राष्ट्रवाद और हिंदू पुनरुत्थानवाद
भारत में हिंदू पुनरुत्थानवाद का विकास 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारत को उदारवादी आंदोलन को सफलता न मिलने पर, राष्ट्रवादी आंदोलन ने भारत के आम लोगों को जोड़ने की जरूरीयात और हिंदू धर्म के पुरातन गौरव को भरने के कारण हुआ था। हिंदू पुनरुत्थानवाद पोंगापंथ के साथ एक जोरदार राजनीतिक स्वर था, जो आधुनिक भारतीय राष्ट्र की रचना को ऐतिहासिक जरूरीयात से प्रभावित था।
हिंदु पुनरुत्थानवादी आंदोलन ने अनजाने में इस बात का प्रचार किया था, कि भारतीय समाज और संस्कृति पुरातन समय में महानता और आदर्श की ऊंचाइयों पर रहती थी, परंतु भारत में मध्यकाल के दौरान मुस्लिम शासक के प्रभुत्व की वजह से भारत की महानता का निरंतर पतन हुआ था।
शुरुआती समय में हिंदू पुनरुत्थानवाद सामाजिक स्वरूप में चल रहा था परंतु थोड़े ही समय में उसने एक राजनीतिक भूमिका तैयार कर ली और धार्मिक प्रतीको, देवी देवताओं तथा सांस्कृतिक धार्मिक उत्सव का सहारा लेकर राष्ट्रीय आंदोलन का प्रचारक बन गया।
राष्ट्रवादीयो ने राष्ट्रीय आंदोलन के शुरुआती चरण में अल्पसंख्यकों को इस बात पर विश्वास दिलाने का प्रयत्न किया, कि इस आंदोलन से भारत के सभी लोगों के धार्मिक और सामाजिक अधिकारों की सावधानीपूर्वक रक्षा की जायेगी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वर्ष 1886 और 1889 के अधिवेशन में घोषणा करने में आई थी, कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में सामाजिक और धार्मिक प्रश्न उठाई नहीं जाएगे। एक और जहां गरमपंथी राष्ट्रवाद राष्ट्रीय आंदोलन की दिशा में आगे बढ़ाया हुआ कदम था, तो दूसरी ओर वही राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से प्रतिगामी कदम भी साबित हुआ।
उग्रपंथी विचारधारा अपने राजनीतिक लक्ष्य को हासिल करने के लिए धर्म के व्यापक उपयोग में विश्वास रखती थी। भारत के कुछ गरमपंथी राष्ट्रवादी जैसे की पंजाब के लाला लाजपत राय, बंगाल के विपिन चंद्र पाल और महाराष्ट्र के बाल गंगाधर तिलक के भाषण और लेखन धार्मिक तथा हिंदू रंगत में रंगे हुए दिखाई देते थे।
गरमपंथी नेता बाल गंगाधर तिलक ने हिंदुओं को एक साथ लाने के लिए गणपति और शिवाजी जैसे धार्मिक उत्सवो का प्रारंभ किया। साथ ही तिलक ने हिंदू संप्रदाय के लोगों को मुस्लिम पर्व और त्योहारों का बहिष्कार करने के विचारों को फैलाया था।
आर्यसमाज के द्वारा गौ रक्षा का आंदोलन उत्तर भारत में हिंदुओं की राजनीतिक लामबंदी के लिए शुरू किया गया था। इस आंदोलन के बाद से मुस्लिम समुदाय के लोगों के मन में अलग-अलग प्रकार की शंकाओं का उदय हुआ। वर्ष 1893 के गौ हत्या से जुड़े दंगों के बाद हिंदुओं के द्वारा गोवध पर कानूनी रूप से प्रतिबंध लगाने की मांग करने में आइ। इस मांग पर कांग्रेस की खामोशी ने अल्पसंख्यको के वर्ग को डरा दिया था। बंगाल का हिंदू भद्रलोक अकसर मुस्लिम संप्रदाय के लोगों को अपमान भरी नजर से देखता था। ग्रामीण नाटकों में ऐतिहासिक मुस्लिम पात्रों की निंदा करने में आई थी जिसकी वजह से हिंदू और मुसलमानों के बीच तनाव का माहौल बन गया था।
अरविंद घोष की भारत माता तथा राष्ट्रवाद की धर्म के रुप में दी गई अवधारणाएं, बंग भंग विरोधी आंदोलन की शुरुआत गंगा स्नान के बाद करना और क्रांतिकारी आतंकवादियों के द्वारा काली देवी अथवा भवानी के सामने शपथ ग्रहण करने जैसी प्रक्रियाए किसी भी मुसलमान को पसंद नहीं आई थी। इन हिंदू रस्मो ने दोनों समुदायों के बीच में दरार पैदा कर दी थी। अकबर के विरुद्ध महाराणा प्रताप और औरंगजेब के विरुद्ध छत्रपति शिवाजी के राजनीतिक संघर्ष को ऐतिहासकारों ने धार्मिक संघर्ष के रूप में दिखाकर सांप्रदायिकता को हवा दी थी।
बंगाल विभाजन विरोधी आंदोलन
भारत के लोगों की भारतीय राष्ट्रवादी की भावना को जवाब देने के लिए ब्रिटिश साम्राज्य ने सरकारी नौकरियों में मुसलमानों को विशिष्ट प्रतिनिधित्व दीया। इस प्रकार ब्रिटिश सरकार ने बड़ी चालाकी से हिंदुओं के विरुद्ध में मुसलमानों को खड़ा कर दिया।
वर्ष 1885 मे जुलाई में सबसे पहले मुसलमानों को विशिष्ट रक्षा देने की नीति का प्रस्ताव रखा गया था। वर्ष 1897 में एक सर्कुल पास किया गया था, जिसमें प्रावधान किया गया था कि कार्यपालिका के निम्न पद में दो तीहाई खाली पद, नामांकन द्वारा पुर्ण कीये जाएगे ताकि समुदायों के बीच में असंतुलन ना रहे। मुसलमानों को विशिष्ट रूप से रक्षा करने की नीति को वर्ष 1905 में बंगाल के विभाजन में संस्थागत रूप दिय गया, साथ ही मुस्लिम संप्रदाय के बहुमत वाले पूर्वीय बंगाल प्रांत का निर्माण हुआ।
ब्रिटिश सरकार ने बंगाल के विभाजन को प्रशासनिक सुविधा का नाम दिया था। परंतु बंगाल के विभाजन के पीछे ब्रिटिश सरकार का मुख्य लक्ष्य बंगाल में स्थित हिंदू मुस्लिम की एकता को तोड़ना और उसे विभाजित करके कमजोर कर देना था। ब्रिटिश सरकार अगर ऐसा नहीं करती तो हिंदू मुस्लिम की एकता की वजह से उनका साम्राज्य खतरे में आ सकता था। ब्रिटिश सरकार बंगाल के विभाजन से मुस्लिम संप्रदाय के लोगों को यह संदेश देना चाहती थी कि मुसलमान का नया प्रांत बन जाने से उनको राजनीति और प्रशासनिक सुविधाएं ज्यादा प्राप्त होगी। गवर्नर जनरल लार्ड कर्जन और ब्रिटिश हुकूमत मुसलमानों को यह विश्वास दिलाने में सफल हो गए थे कि बंगाल के विभाजन से मुसलमानों को फायदा होगा। इसी वजह से मुसलमान ब्रिटिश सरकार के लालच में आकर बंगाल के विभाजन के लिए तैयार हो गए थे। साथ ही मुसलमानो ने बंगाल विभाजन के विरोध में चल रहे आंदोलन को हिंदू बहुसंख्यक तानाशाही की उपाधि दी थी।
बंगाल के विभाजन के समय पर स्वदेशी नेता राजनीतिक प्रश्नों पर धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण को ना अपनाकर यह प्रचार करते रहे की मुसलमानों को विशेष सुविधाएं हिंदुओं की कीमत पर मिल रही है। भारत में स्वदेशी आंदोलन के चलते मुसलमानों को साफ-साफ रूप से ‘दूसरा’ की संज्ञा मिल गई थी। जिसके कारण बंगाल विभाजन विरोधी आंदोलन मुसलमानों के लिए एक मुसलमान विरोधी आंदोलन में तब्दील हो गया था।
अब्दुर्रसूल और हसरत मोहानी जैसे प्रगतिशील मुसलमान अलगाववादी और ब्रिटिश सरकार के इस विचार से असमर्थ थे। जिसके कारण वे स्वदेशी आंदोलन में शामिल हुए थे। कई सारे मुसलमानो ने बंगाल के अलग-अलग भागों में हिंदू-मस्लिम दंगे
किए थे। हालांकि बंगाल में हो रहे दंगों का मुख्य कारण बंगाल विभाजन का विरोध या समर्थन था, परंतु दंगे की प्रवृत्ति मुख्य रूप से आर्थिक थी जो कि हिंदू जमींदारों तथा मुस्लिम किसानों और श्रमिकों के बीच चल रही थी।
ब्रिटिश सरकार ने वर्ष 1911 में बंगाल विभाजन की नीति को निरस्त किया। जिसके कारण बंगाल के उन मुसलमानों को बहुत ज्यादा निराशा हुई जो नए प्रांत में खुद के लिए विशेष राजनीतिक और प्रशासनिक विशिष्ट अधिकारो की उम्मीद लगाए बैठे थे। ब्रिटिश सरकार ने बंगाल के मुसलमानों में इस बात का प्रचार करना शुरू कर दिया कि अगर भारत को ब्रिटिश साम्राज्य से आजादी मिलती है, तो भारत का निर्माण कांग्रेस के नेतृत्व में होगा जिसकी वजह से भारत मे हिंदुओं को पहले दर्जे के नागरिक माने जाएंगे और मुसलमानों को दूसरे दर्जे पर रखा जाएगा।
मुस्लिम लिंग की स्थापना
वर्ष 1906 में भारत के सचिव मार्ले के बजट भाषण ने संकेत दिया था, कि भारत में प्रतिनिधिक शासन की शुरुआत होने वाली है। इसके बाद से सभी मुस्लिम नेता चिंता में पड़ गए। मुस्लिम नेताओं का मानना था कि नई स्वशासी संस्थाओं में बहुसंख्यक हिंदू का अधिपत्य होगा जो कांग्रेस में अच्छी तरह से संगठित है। 1 अक्टूबर 1906 में मुसलमानों का एक प्रतिनिधिमंडल गवर्नर जनरल लॉर्ड मिंटो से शिमला में जाकर मिला था। वायसराय ने मुसलमानों को विश्वास दिलाया था कि उनके अधिकारों का संरक्षण किया जाएगा। मुसलमानो के प्रतिनिधिमंडल ने स्वतंत्र राजनीतिक कार्यवाइ करने के लिए अपने समुदाय के लोगों को संगठित करने का फैसला लिया, ताकि वह खुद के लिए ब्रिटिश सरकार से एक अलग राष्ट्र की मांग कर सकें।
30 दिसंबर 1906 को ब्रिटिश सरकार की निगरानी में बंगाल की राजधानी ढाका मे नवाब बकार-अल-मुल्क, आगा खान और मोहसिन-उल-मुल्क ने ऑल इंडियन मुस्लिम लिंग जैसे एक वफादार, सांप्रदायिक और रूढ़िवादी राजनीतिक संगठन की स्थापना की थी। मुस्लिम लिंग के सदस्यों ने बंगाल के विभाजन का समर्थन किया और मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल की मांग की। मुस्लिम लिंग ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध में ना होकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और हिंदुओं के साथ संघर्ष कर रहा था। वर्ष 1885 में बंगाल के पहले मुस्लिम संगठन मुहम्मडन एसोसिएशन अथवा अंजुमने-इस्लामी की स्थापना हुई।
बंगाल के इस पहले मुस्लिम संगठन के मुख्य दो लक्ष्य थे। पहला मुस्लिम समुदाय के लिए सुविधाओं को बढ़ाना और ब्रिटिश सरकार से वफादारी का संबंध स्थापित करना। दूसरा हिंदुओं के साथ प्रतियोगिता में विशेष अधिकार ना लेकर बराबरी का मौका देने की मांग की थी। इस एसोसिएशन ने मुसलमानों तक शिक्षा का प्रचार करने के लिए अनेक प्रयत्न किए, ताकी मुस्लिम संप्रदाय के लोगो को सरकारी पदों के लिए तैयार किया जा सके। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के प्रति अपनी वफादारी साबित की और वर्ष 1857 में हो रहे विद्रोही आंदोलन की निंदा की।
मुस्लिम लिंग पर प्रारंभिक समय में संयुक्त प्रांत के मुसलमान का दबदबा रहा था। और जिसकी वजह से अलीगढ़ अखिल भारतीय मुस्लिम राजनीति का केंद्र बन चुका था। विकारुल-मुल्क और मोहसिन-उल-मुल्क तथा पंजाब क्षेत्र के कुछ नेताओं की सहायता से अलीगढ़ के बजुर्गों ने मुस्लिम लिंग को अपना संगठन बना लिया और मुस्लिम लिंग को अपनी वैचारिक प्राथमिकताओं के सहारे चलाना शुरु कर दिया। सभी मुख्य प्रांतों में प्रांतीय मुस्लिम लीग का गठन वर्ष 1907 से लेकर 1909 तक किया गया था। इसके बाद से मुस्लिम लिंग को अपने संविधान तैयार करने की स्वतंत्रता प्राप्त हुई थी। मुस्लिम लिंग की लंदन की शाखा मई 1908 मे शुरू करने में आई थी। इस शाखा ने सैयद आमिर अली के नेतृत्व में 1909 संवैधानिक सुधारों मार्ले मिंटो सुधार को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
मार्ले मिंटो सुधार अथवा पृथक चुनाव मंडल
मार्ले मिंटो सुधार ने पृथक निर्वाचक मंडल तथा केंद्रीय विधायीका और प्रांतीय विधायीकाओं मैं मुस्लिम संप्रदाय के लोगों की आबादी के अनुमापन से बहुत ज्यादा संख्या में सरकारी पदों के लिए सीटों को आरक्षित किया था। जिसकी वजह से भारत के मुसलमानों की अलग राजनीतिक पहचान को आधिकारिक रूप से पहचान मिली।
पृथक निर्वाचक मंडल में सभी मतदाता एक ही धर्म का आचरण करने वाले होते थे, जिसकी वजह से सांप्रदायिक आधार पर चुनाव का प्रचार जोर-शोर से किया जाता था। भारत के उस वक्त के सचिव लार्ड मार्ले ने वायसराय मिंटो को सूचित करते हुए लिखा था, कि अलग मतदान क्षेत्र बनाकर ब्रिटिश सरकार ऐसे घातक विष का निर्माण कर रही है, जिसकी वजह से ब्रिटिश सरकार को घातक नुकसान होगा।
मुस्लिम लिंग के द्वारा की गई अभिजातवर्गीय नेतृत्व की सरकार परस्त, हिंदू लोगों के विरोध की नीतियों से राष्ट्रवादी मुसलमानों के युवा वर्ग को निराशा हुई थी। नवाब सादिक अली खान ने कहा था कि मुसलमान को दी जा रही मुसलमानों की राजनीतिक लाभ हिंदुओं से अलग है की शिक्षा गलत है।
मोहम्मद जिन्ना ने अलग प्रतिनिधित्व की व्यवस्था को भारत के राजनीति रूपी शरीर में गलत नियत से प्रविष्ट किया गया विष युक्त तत्व बताया था। वर्ष 1906 में मोहम्मद जिन्ना ने कांग्रेस अधिवेशन में मुसलमान समुदाय के लोगों के लिए अलग प्रतिनिधित्व और आगा खान के द्वारा ब्रिटिश सरकार के की गई विशेष सुविधाओं की मांग का विरोध किया था। मोहम्मद जिन्ना ने बताया था कि मुस्लिम समुदाय को विशेष सुविधाएं या प्रतिनिधित्व ना देकर उनको हिंदू समाज के समकक्ष दर्जा मिले। मोहम्मद जिन्ना ने वर्ष 1906 के बाद की सभी जन सभाओं में राष्ट्रीय एकता पर जोर दिया था। जिसकी वजह से सरोजिनी नायडू ने मोहम्मद जिन्ना को हिंदू मुस्लिम एकता के राजदूत की उपमा दी थी। मोहम्मद जिन्ना मुस्लिम लिंग में वर्ष 1913 में शामिल हुए थे।
बीसवीं सदी के प्रथम विश्व के पश्चात अलग-अलग वजह से मुसलमान समुदाय के युवा वर्ग में आधुनिक और परिवर्तनवादी विचारों का उदय हुआ था। वर्ष 1911 में बंग भंग की नीरस्ति जैसे कार्यों से, पहले विश्व युद्ध के आने के पहले ही मुस्लिम मध्यवर्ग में राजनीतिक परिपक्वता आ चुकी थी। मौलाना अब्दुल कलाम आजाद ने वर्ष 1912 में अल हिलाल के द्वारा बुद्धि वादी और राष्ट्रीय विचारों को फैलाया किया था।
मुसलमान संप्रदाय के कुछ प्रमुख नेता जैसे कि डॉक्टर अंसारी, मौलाना मोहम्मद अली और हाकिम अजमल खान ने सैयद अहमद खान के अलीगढ़ आंदोलन के समर्थन में थे। परंतु यह सभी नेता मुसलमानों की अंग्रेज सरकार के प्रति नज़दीकियां और विश्वास को त्याग करके राष्ट्रीय आंदोलन में जुड़ना चाहते थे।
हिंदूवादी सांप्रदायिकता
मुस्लिम सांप्रदायिकता के साथ-साथ हिंदू सांप्रदायिकता का भी विकास हुआ था। भारत के लेखकों और नेताओं ने सिर्फ मुस्लिम सांप्रदायिकता और मुस्लिम समुदाय के विचारों को ही प्रकट किया था। परंतु हकीकत में हिंदू संप्रदायवाद की स्थापना वर्ष 1875 मैं आर्य समाज के शुद्धि आंदोलन के दौरान हुई थी।
भारत में चल रहे संयुक्त प्रांत और बिहार में चल रहे हिंदी उर्दू के विवाद की अवधारणा का प्रचार इस प्रकार किया गया कि उर्दू मुसलमानों की भाषा है और हिंदी हिंदुओं की भाषा है। वास्तव में वर्ष 1870 के तुरंत बाद से हिंदू जमीदारों, सूदखोरों और मध्यवर्गीय पेशेवर लोगों ने मुसलमानों के प्रति विरोध की भावना का प्रचार करना शुरू कर दीया था। वर्ष 1890 के दशक में महाराष्ट्र और पंजाब जैसे देश के ऊपरी हिस्सों में हिंदुओं ने मुसलमानों के द्वारा हो रहे गोवध के खिलाफ अभियान चलाया गया। गोवध विरोधी अभियान के चलते भारत मैं जगह जगह पर दंगे करने में आए।
मुंबई के भीषण दंगे के बाद वर्ष 1893 में महाराष्ट्र में बाल गंगाधर तिलक ने मुसलमानों के पक्ष में सरकार के होने का आक्षेप लगाते हुए, हिंदुओं को भगवान गणपति की पूजा के सार्वजनिक त्योहार में हिस्सा लेने के लिए प्रोत्साहित किया और मुसलमानों के महर्रम के त्योहार का बहिष्कार करने के लिए अपील की। इस घटना के बाद से भारत के अलग-अलग भागों में दंगे होने की खबर आने लगी।
इस तरह धार्मिक पुनरुत्थान वाद और गौ रक्षा के विवाद में हुए दंगों की वजह से भारत में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच एकता और भाईचारे की भावना को धुंधली पड गय थी।
हिंदू सांप्रदायिकता के विकास के लीए हिंदू महासभा का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। बी.एन मुखर्जी तथा लाल चंद्र ने वर्ष 1909 में पंजाब में हिंदू महासभा की स्थापना की थी। लालचंद्र इस बात को लेकर बड़े निराश थे, कि राष्ट्रीय कांग्रेस भारत के सभी लोगों को एक राष्ट्र के रूप में संगठित करने के प्रयास कर रहा है। साथ ही राष्ट्रीय कांग्रेस हिंदुओं के लाभों की बलि देकर मुसलमानों को खुश करने का प्रयास कर रहा है। लाल चंद्र ने हिंदुओं को कहा था, कि हिंदू सबसे पहले अपने आप को हिंदू माने और फिर भारतीय माने। पंजाब में वर्ष 1911 में हिंदू महासभा ने अमृतसर में एक सम्मेलन का आयोजन किया था।
अप्रैल 1915 में अखिल भारतीय हिंदू महासभा के द्वारा प्रथम अधिवेशन का आयोजन कासिम बाजार के महाराजा की उपस्थिति में किया गया। हिंदू महासभा के प्रथम अधिवेशन में बहुसंख्यक समुदाय द्वारा हिंदू राष्ट्रवाद और हिंदू लाभो की मांग करने में आई थी। इस घटना के बाद से मुसलमान समुदाय पर नकारात्मक असर हुई और सांप्रदायिकता का विकास हुआ।
मुस्लिम लिंग अपने आप को मुस्लिम संप्रदाय के प्रतिनिधि मानते थे और कांग्रेस को हिंदूवादी संगठन मानते थे। बंगाल के विभाजन को रद्द करने के लिए और प्रथम विश्वयुद्ध में तुर्की के खिलाफ इंग्लैंड द्वारा युद्ध की घोषणा जैसे ब्रिटिश हुकूमत के फैसले की वजह से मौलाना आजाद और मुहम्मद अली जिन्ना सरकारपरस्तो पर हावी होने लगे।
वर्ष 1915 के दिसंबर में मुंबई में राष्ट्रीय आंदोलन को नया स्वरूप देने के लिए मुस्लिम लिंग और कांग्रेस दोनों के अधिवेशन किए गए। इस अधिवेशन में पहली बार दोनों राजनीतिक दलों के मुख्य नेता एक ही समय पर, एक ही स्थान पर और एक ही साथ एकत्र हुए थे।
वर्ष 1916 में मोहम्मद जिन्ना और बाल गंगाधर तिलक के प्रयत्नों से मुस्लिम लिंग और कांग्रेस का अधिवेशन लखनऊ शहर में हो पाया था।
लखनऊ अधिवेशन में लखनऊ समझौता हुआ था। जिसमें कांग्रेस के सदस्यों ने मुसलमानों की अलग मतदान क्षेत्र की मांग को औपचारिक रूप से समर्थन दिया था। यह समर्थन मुस्लिम लिंग के लिए सकारात्मक सफलता थी। अलग मतदान क्षेत्र के सिद्धांत को समर्थन देकर कांग्रेस ने सांप्रदायिकता की राजनीति का स्वीकार किया था।
मुसलमान संप्रदाय का समर्थन हासिल करने के लिए असहयोग के आंदोलन के साथ मुसलमानों के धार्मिक आंदोलन खिलाफत को जोड़ा गया। खिलाफत आंदोलन के माध्यम से रूढ़िवादी मुसलमानों को राजनीति में प्रवेश ने का अवसर प्राप्त हुआ।
खिलाफत आंदोलन ने मुसलमान के मध्यवर्ग के लोगों में राष्ट्रीय और साम्राज्यवाद के विरोध की भावना को जगाया। परंतु खिलाफत आंदोलन मुसलमानों में धार्मिक राजनीतिक चेतना को उच्च कक्षा पर ले जाकर धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक चेतना में बदलने में असमर्थ रहा। इसके परिणाम स्वरूप मुस्लिम लीग और कांग्रेस गठबंधन से भारत में सांप्रदायिकता को विकसित होने का मौका मिला।
भारत में सांप्रदायिकता के विकास के कारण सबसे ज्यादा नुकसान भारत के आम लोगों को हुआ था। जबकि सांप्रदायिकता के कारण सबसे ज्यादा लाभ दोनों समुदायों के आर्थिक राजनीतिक संभ्रांतो को हुआ था। इस प्रकार ब्रिटिश साम्राज्य के समय में सांप्रदायिकता का विकास आध्यात्मिक अथवा धार्मिक ना होकर राजनीतिक था।
Last Final Word:
यह थी भारत में सांप्रदायिकता के उदय के कारण के बारे में जानकारी। उम्मीद है आपको हमारी जानकारी फायदेमंद रही होगी। अगर इस आर्टिकल से संबंधित आपको कोई भी प्रश्न पुछना हो तो हमें कमेंट के माध्यम से बताना।
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