दोस्तों आज के इस आर्टिकल में हम दादाभाई नौरोजी का धन-निष्कासन सिद्धांत के बारे में जानकरी हासिल करेगे। यह आर्टिकल को पढ़कर आपको दादाभाई नौरोजी का धन-निष्कासन सिद्धांत के बारे में संपूर्ण रूप से जानकारी मिल जाएगी।
19वि सदी में जब भारत में राष्ट्रिय आन्दोलन और क्रांतिकारी विचारधारा के लिए कार्य हो रहे थे, तभी कई सारे नेता ने अपने समय में इन सभी आंदोलन के साथ साथ औपनिवेशिक अर्थव्यवथा के आर्थिक बाबतो के लिए अपना विचार प्रगट किया था। राष्ट्रिय आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए इन महान नेताओ ने अपना योगदान देते हुए सभी राष्ट्रिय आन्दोलन के लिए आर्थिक समीक्षा को और उससे सबंधित बाबतो को विस्तृत रूप से सबके सामने रखा था। नेताओ को मालूम पड गया था की, ब्रिटिश हुकूमत अपनी सुविचारिक योजना के चलते हिंदुस्तान को लुट रहे है। जिसके लिए उन सभी ने अपने भाषणों में, लोगो में पत्रिकाए बाट कर, अखबार में लेख सम्पादित करके, नाट्यकला के माध्यम से तथा गीत और प्रभात फेरियो के जरिये भारत के नागरिको तक सच्चाई लाने के लिए अपने प्रयास शरु कर दिए।
19वि सदी के शरुआत के समय में भारत के नागरिको को लगता था की ब्रिटिश हुकूमत दुनिया का सबसे बड़ा, समृध्ध और विकसित शासन है। जिसके चलते भारत के बुध्धिमान लोगो को लगता था की उनकी आर्थिक निति से भारत की उन्नति होगी और साथ ही भारत को आधुनिक बनाने में और दुनिया के सभी देश में आगे लाने में ब्रिटिश सरकार सहायता करेंगी। दुनिया के सभी आर्थिक क्षेत्र में ब्रिटिश सबसे पहेले आता था, जिसकी वजह से भारत उम्मीद लगाये बेठा था की ब्रिटिश सरकार आधुनिक विज्ञान और टेक्नोलॉजी की अपनी पूंजीवादी आर्थिक संस्था के माध्यम से भारत में उत्पादन को बढाएगा और भारत को विकसित देश में परिवर्तित करेगा।
शरुआत के समय से ही राष्ट्रियवादी नेताओ को ब्रिटिश हुकूमत के राजनितिक चाल और आर्थिक निति के खराब परिणामो के बारे में जानकारी मिल गई थी। परन्तु भारत को विकसित बनाने की आशा से और आधुनिक बनते देखने की चाह से उन्हों ने समर्थन किया था।
राष्ट्रियवादी का आशा लगाये रखना गलत साबित हुआ। साल 1860 में उनका भ्रम दूर हो गया था। भारत को आगे लाने के लिए उन्होंने जो विचारधारा रखी थी ऐसा कुछ भी नहि हो रहा था। अब उनकी आंखो के सामने सच्चाई आ गई थी की केवल दिखावे के लिए ही ब्रिटिश हुकूमत ने कुछ क्षेत्र में विकास किया है। एक और प्रगति रुकी हुई थी, तो दूसरी और भारत देश गरीबी और लाचारी में डूब रहा था। भारत के लोको के सामने ब्रिटिश हुकूमत की सच्चाई आ गयी थी। सच्चाई सामने आते ही उन्हों ने ब्रिटिश हुकूमत की आर्थिक निति से होने वाली खराब असर के बारे में पता लगाना शरु कर दिया।
ब्रिटिश हुकूमत के आर्थिक नीतिओ के कारण होने वाले प्रभाव के बारे में साल 1870 से लेकर साल 1905 के दौरान सबसे पहले दादाभाई नौरोजी ने अपनी पुस्तक के जरिये बताया था। पुस्तक का नाम पावटी एंड अनब्रिटीश रुल इन इंडिया था। जिसमे आर्थिक विकास की अवधारणा के बारे में बताया गया है। इसमें दादाभाई नौरोजी ने भारत की गरीबी के लिए साफ-साफ ब्रिटिश हुकूमत को जिम्मेदार बताया था।
दादाभाई नौरोजी के समय में ही न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानाडे नामक भारतीय राष्ट्रियवादी ने भारत के लोगो को ओद्योगिक विकास की आवश्यकता के बारे में बताया था। वर्ष 1757 के पश्चात अवकाशप्राप्त I.C.S अधिकारी रोमेशचंद्र दत्त ने ब्रिटिश हुकूमत की आर्थिक कार्य कलाप की छोटे से छोटी जानकारी हासिल की। दादाभाई नौरोजी ने भारत का आर्थिक इतिहास के नाम से इस जानकारी को लिखा था।
उनके बाद भारत के आर्थिक अर्थव्यवथा के अलग अलग पहेलु को ध्यान में रखकर जी.बी.जोशी, गोपालकृष्ण गोखले और पृथ्विशचन्द्र राय तथा दादाभाई नौरोजी जैसे कई सारे राजनितिक नेता और पत्रकारो ने जाँच पड़ताल करनी शरु करी दी। इस दौरान मालूम पड़ा की भारत का आर्थिक विकास ब्रिटिश हुकूमत की वजह से नहीं हो पा रहा। उन्हों ने इस विचार को लोगो तक पहुचाया और कहा की ब्रिटिश सरकार भारत का शोषण कर रहा है और आर्थिक रूप से आगे बढ़ने में बाधा बन रहा है।
शरुआत के समय के राष्ट्रियवादी को यह मालूम हो गया था की भारत की अर्थव्यवथा को ब्रिटिश हुकमत की आर्थिक निति से शोषित किया जा रहा है। उनको मालूम था की भारत को आगे लाने के लिए व्यापर और उद्योग को बढ़ावा देना होगा। उनको एहसास हो गया था की उपनिवेशवाद अब अलग अलग प्रकार के करो, लुट-खसोट और व्यावसायिक बनियागीरी से नहीं परन्तु व्यापार और विदेशी पूँजी-निवेश का सहारा लेकर भारत को लुट रहा है। इन सभी कुचक्र में भारत को फसा कर भारत को गरीब देश में तपदिल कर रहा है।
आरम्भिक राष्ट्रियवादी को यह भी पता चल गया था की ब्रिटिश उपनिवेशवाद के लिए भारत केवल कच्चे समान और खाद्य सामग्री के लिए जरिया है, साथ ही भारत ब्रिटिश हुकूमत के लिए पूँजी-निवेश का विस्तृत बाजार बन चुका था।
भारत के आर्थिक शोषण को रोकने के लिए राष्ट्रीयवादीओ ने सभी प्रकार के आवश्यक क़ानूनी आर्थिक नीतिओ के विरुद्ध में आन्दोलन किये। भारत की अर्थव्यवथा पर ब्रिटिश साम्राज्य की हुकूमत को पूरी तरह से ख़त्म करने के लिए वकालत भी की गई थी। दादाभाई नौरोजी ने मांग की थी की भारत के विकास को ध्यान में रख कर कोई ऐसा वैकल्पिक रास्ता लाया जाये जिसकी वजह से भारत की अर्थव्यवथा को ब्रिटिश सरकार के पर निर्भय न रहना पड़े और भारत में स्वतंत्र रूप से अर्थव्यवस्था स्थापित हो सके।
ब्रिटिश सरकार अपने कुचक्र से अनाज और कच्चे माल की आड़ में भारत की धन संपति को इंग्लैंड भेज रहा है, इसका ज्ञान आर्थिक विश्लेषको को हो गया था। ब्रिटिश सरकार भारत से कच्चे माल को इंग्लेंड बेज कर उससे उत्पादित होने वाली वस्तुओ को भारत के बाजार में लाकर अर्थव्यवथा पर कब्जा जमा रहे थे। यह सब से मालूम पड़ता है की ब्रिटिश भारत के धन को इंग्लैंड भेज कर वापिस भारत में ले आते थे और पूंजी के स्वरूप में जमा कर देते थे। इस प्रकार भारत का शोषण चल रहा था।
भारत के आर्थिक शोषण को रोकने के लिए भारत के सभी अर्थशास्त्रियो ने मिलकर भारत की अर्थव्यवथा को औपनिवेशिक दासता से अलग करने के लिए वकालत की। उनकी मांग थी की भारतीय अर्थव्यवथा भारत के हित और लाभ के अनुसार होनी चाहिए ताकि भारत का विकास हो और भारत समृध्ध एवं आधुनिक रूप से विकसित बन सके।
भारत में गरीबी की समस्या
19वि सदी में ब्रिटिश सरकार के द्वारा हो रहे आर्थिक शोषण के कारण भारत गरीबी की जपेट में आ गया था। भारत में चारो और गरीबी फ़ैल चुकी थी। एसे समय में देशभक्त के द्वारा भारत के नागरिको की गरीबी को राष्ट्रिय मुद्दा कह कर सभी का ध्यान खीचा। लोगो तक पूरी जानकारी पहुचाई, जिसकी वजह से भारत के नागरिको को सच्चाई के बारे में पता चला। इस आन्दोलन में अलग अलग क्षेत्र, धर्म और जातियों में विभाजित हुए भारत के लोग एकजुुथ हो गए थे। राष्ट्रियवाद के अनुसार ब्रिटिश हुकूमत के नीतियों और मालगुजारी के ज्यादा करो की वजह से भारत का किसान गरीब बनता जा रहा था। भारत की गरीबी की वजह न तो इश्वर की देंंन थी और न तो भारत की नियति थी। गरीबी एक मानव के द्वारा उतपन्न होने वाली समस्या है। एसा नहीं है की इसे ख़त्म नहीं किया जा सकता, अगर हम चाहे तो इसे पूरी तरह से ख़त्म कर सकते है। गरीबी की वजह से पूँजी का संचय और निर्माण नहीं होने के कारण मुड़ी का आदान प्रदान रुक गया था। गरीबी के चलते भारत के लोगो का जीवन निम्न हो गया था।
दादाभाई नौरोजी ने भारत के व्यक्ति की प्रति दिन की आमदनी के बारे में जाँच की, जिससे मालूम पड़ा की उस वक्त भारत के एक नागरिक की आमदनी 20 रुपये थी। वर्ष 1899 में दिग्वि के अनुसार यह गणना 18 रुपिये की थी। गरीबी की साथ साथ भारत में अकाल और महामारी जैसी कुदरती आपत्ति भी चल रही थी। कॉलिन क्लर्क जो की भारत के राष्ट्रिय आय से जुड़े विख्यात विशेषज्ञ थे, उनकी गणना से साल 1925 से लेकर 1934 के बिच में दुनिया में सबसे कम प्रति व्यक्ति आय भारत और चीन की थी। जबकि ब्रिटिश की आय भारतीयों से पांच गुना ज्यादा थी।
भारत का औद्योगिक विकास
आरम्भिक राष्ट्रीयवादी ने भारत के विकास के लिए सबसे आवश्यक जरूरत के तौर पर आधुनिक उद्योग के विकास और उनकी तेजी के बारे में बात प्रचलित की। प्रारंभिक राष्ट्रीयवादी का पहेला उपदेश भारत की आर्थिक व्यवस्था को तकनीक और पूंजीवादी पर आधारित अर्थव्यवथा में निर्माण करने का था। यह तभी संभावित है जब भारत में उद्योग का विकास हो। इसका मतलब है की अगर भारत का विकास करना है तो भारत में उद्योग को बढ़ावा देना होगा। जी.बी जोशी जी ने उद्योग के बारे में कहते हुए बताया है की उद्योगीकरण एक बेहतरिन और बड़े पैमाने की सभ्यता का प्रतिनिधित्व करता है। साथ ही रानाडे ने अपना मत रखते हुए कहा था की स्कुल और कॉलेज के भी ज्यादा उद्योग के जरिए प्रभावशाली रूप से भारत की गतिविधियों को पुनर्निमित कर सकते है।
प्रारंभिक राष्ट्रियवाद के अनुसार अलग अलग वर्गों में विभाजित भारत के लोगो को एकजुट करने में आधुनिक उद्योग बेहतरिन साबित होगा। साथ ही साथ सामूहिक लाभों को लेकर एक अलग राष्ट्रिय पहचान बना सकते है। वर्ष 1920 में सुरेन्द्रनाथ बेनर्जी ने बंगाली भाषा में कहा था की राजनितिक अधिकारों की लड़ाई से भारत की भिन्न भिन्न जाती के लोगो को एक समूह के रूप में थोड़े वक्त तक ला सकते, परन्तु अधिकारी को अधिकार मील जाने पर सबके अपने लाभ वपिस भिन्न भिन्न हो जायेगे। इस सभी अलग अलग जाती के लोगो के आर्थिक लाभों को अगर एक कर दिया जाये तो यह भारतीय लोगो के समूह को कोई नहीं तोड़ सकता। वाणिज्यिक और औद्योगिक गतिविधिया बेहतरीन और मजबूत सूत्र है, जिसकी वजह से लोगो में एकता लाई जा सकती है।
राष्ट्रीयवादी ने ब्रिटिश सरकार के आर्थिक निति का विरोध करते हुए आरोप लगाया था की कर को इस तरह से बढाया जा रहा है की जिसकी वजह से भारत के गरीब लोग पर उसका दबाव बढ़ता जा रहा है, तो दूसरी तरफ ब्रिटिश साम्राज्य की पूंजीपति अधिक धनवान होते जा रहे है। उनके हिसाब से ब्रिटिश सरकार भारत के विकास और भारत की जनता के कल्याण के लिए खर्चा न करके अपने औपनिवेशक लाभों को पूर्ण करने के लिए खर्च पर ध्यान देती है। उन्हों ने ब्रिटिश सरकार के द्वारा लिए जाने वाले सेना के लिए बढ़ते खर्च के खिलाफ अपना विरोध जाहिर किया था। सेना का उपयोग ब्रिटिश सरकार नए विस्तार पर अपना शासन स्थापित करने के लिए और एशिया तथा आफ्रीका में औपनिवेशिक शासन को चलाये रखने के लिए करते थे।
विदेशी पूँजी बनाम देशी पूँजी (Foreign Capital Vs Domestic Capital)
भारत के विकास के लिए उद्योग ही सही रास्ता है, इस बात से सभी राष्ट्रीयवादी सहमत थे। यह बात से भी सभी सहमत थे की भारत में उद्योग के विकास के लिए यह भारतीय पूँजी पर निर्धारित होना चाहिए न की विदेशी पूँजी पर। राष्ट्रीयवादी के विरोध में ब्रिटिश सरकार के अर्थव्यवथा और राजनितिक अधिकारी ने वर्ष 1840 से ही इस बात पर अपनी तरफ से वकालत करनि शरू कर दी थी। ब्रिटिश सरकार ने अपना पक्ष रखते हुए कहा था की भारत के पूर्ण विकास के लिए विदेशी पूँजी-निवेश बहुत आवश्यक है। उसके लिए भारत के कानून और व्यवथा की स्थिति अच्छी होनी चाहिए। वर्ष 1899 में वायसराय लार्ड कर्जन ने कहा था की, भारत के विकास के लिए अनिवार्य शर्त के रूप में विदेशी पूँजी जरुरी है।
प्रारंभिक राष्ट्रीयवादी ने विदेश पूँजी का अर्थ तर्क वितर्क के आधार पर प्रतिवाद किया था। उनके तर्क के हिसाब से भारतीय पूँजी को आगे लाने के बजाय विदेशी पूँजी को उचे दरज्जे पर रख कर भारत की पूँजी को विकसित करने से रोका जा रहा है। उन्हों ने यह भी तर्क दिया था की ब्रिटिश सरकार भारत की पूँजी को भारत से निकाल कर इंग्लैंड में भेज रहे है। भारत की पूँजी को इंग्लेंड भेज कर भारत की अर्थव्यवथा पर अपनी पकड मजबूती से जमा रहे है। विदेशी पूँजी के माध्यम से भारत का विकास करने का अर्थ केवल यह है की आज की निम्न लाभों के लिए भारत के भविष्य को खतरे में डालना। दादाभाई नौरोजी का मानना था की विदेशी पूँजी के नाम पर ब्रिटिश सरकार भारतीय संसाधनों की लुट और शोषण कर रही है। विपिनचंद्र ने वर्ष 1901 में विदेशी पूँजी के बारे में लिखा था की भारत के प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग से विदेशी पूँजी अधिकतर ब्रिटिश के लिए खर्च की जाती है और साथ ही भारत की आर्थिक स्थिति को सुधार ने में बाधा बन रही है। यह आर्थिक खतरे के साथ साथ राजनितिक खतरा भी है, इस लिए जीतनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी इसे ख़त्म करना भारत के भविष्य के लिए बेहतरीन है।
दादाभाई नौरोजी का धन-निष्कासन सिद्धांत (Drain of Wealth Theory)
प्रारंभिक राष्ट्रियवादी ने भारत की आर्थिक पूँजी और संपत्ति के विकास की समस्याको ध्यान में रख के आर्थिक विकास की संज्ञा प्रचलित की गयी। आर्थिक विकास का मतलब होता है की भारत में उत्पादित चीजे, जो भारत के लोगो के लिए प्रतिबंधित है, और राजनितिक वजह से जिसका प्रवाह इंग्लेंड की तरफ बिना किसी पूँजी के भेजना होता है।
दादाभाई नौरोजी ने सबसे पहेले भारतीय पूँजी और संपत्ति के विकास के बारे में अपनी आवाज़ उठाई थी। वर्ष 1867 में उन्होंने कहा था की ब्रिटिश भारत को निचोड़ कर उसका खून चूस रहा है। दादाभाई नौरोजी ने 50 साल तक इसके विरोध में आन्दोलन चलाया था। और भारत के लोगो में इसके लिए जागृति लाने के प्रयास किये।
प्रारंभिक राष्ट्रीयवादीओ ने कहा था की पूंजी और भारत की संपत्ति का ज्यादातर हिस्सा भारत के लोगोंं के हित के लिए खर्च ना होकर भारत में स्थित ब्रिटिश हुकूमत के अधिकारी सैनिक और उनके लोगोंं की तनख्वाह और पेंशन के स्वरूप में खर्च करते थे। ब्रिटिश हुकूमत द्वारा भारत के लिए की गई सहायता के लिए ब्रिटिश सरकार ब्याज के रूप में भारत की जमा पूंजी को मुनाफे के तौर पर इंग्लैंड भेज रहा था।
भारत के प्राकृतिक संसाधन और संपत्ति देन लेन का दूसरा भी पहलू था। जिसमें भारत के द्वारा किए जाने वाले निर्यात व्यापार, आयात व्यापार से ज्यादा था। जिसकी वजह से भारत के पास पूंजी के स्वरूप में कुछ नहीं बचता था। इस प्रकार ब्रिटिश हुकूमत भारत को व्यापारी नीति में उलझा कर भारत की संपत्ति को इंग्लैंड भेज रहा था।
राष्ट्रवादीयो के अनुसार ब्रिटिश सरकार औपनिवेशिक स्वरूप सोच समझकर भारत को विनाश की और तो धकेल रहा था। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया था कि भारत की गरीबी का कारण औपनिवेशिक शासन है। भारत की राष्ट्रीय स्थिति को सुधारने के लिए ब्रिटिश सरकार की आर्थिक राजनीति को बदलने की जरूरत थी। ब्रिटिश हुकूमत द्वारा अपने लिए किए जाने वाले आर्थिक उपयोग को रोकने के साथ साथ कृषि भूमि पर लगने वाला सरकारी कर, नमक पर लगने वाला कर, उच्च मध्यवर्गीय लोगों पर आयकर लगाने और भारत के उद्योगों को सुरक्षित करने की मांग थी।
राष्ट्रवादी ने फिर से भारत के विकास के लिए उद्योगों को आगे लाने की अपनी मांग को प्रस्तुत किया। भारत के विकास के लिए भारतीय पूंजी का इस्तेमाल किया जाना चाहिए क्योंकि विदेशी पूंजी से भारत का विकास संभव नहीं है। उनके हिसाब से विदेशी धनराशि एक ऐसा तत्व है जो भारत के विकास के लिए बाधा रूप है। विदेशी धनराशि से केवल भारत का शोषण किया जा रहा है। इन नेताओं का मानना था कि विदेशी पूंजी से भारत को अत्यंत खतरा हो सकता है क्योंकि इससे राजनीतिक वशीकरण और विदेशी निवेशको के लाभों का पक्ष पोषण हो सकता है जिसकी वजह से देश में विदेशी शासन की हुकूमत बढ़ सकती है। हिंदू में वर्ष 1889 में लिखने में आया था कि जिस देश की अर्थव्यवस्था विदेशी पूंजी से चल रही हो उस देश में विदेशी प्रशासन अपनी जड़ें मजबूत कर लेता है।
भारत के राष्ट्रवाद के पत्रकारों ने ब्रिटिश हुकूमत के इस तर्क का खंडन करते हुए कहा था कि भारत में विदेशी व्यापार और रेलवे की स्थापना से भारत का विकास हुआ है। उन्होंने तर्क देते हुए कहा था कि स्वदेशी उद्योगों पर विदेशी उद्योगों और रेलवे की नकारात्मक असर हुई है। साथ ही आर्थिक विकास के बदले औपनिवेशिक विकास हुआ है जिसकी वजह से भारत की अर्थव्यवस्था पीछे रह गई है। भारत से जो चीजें विदेश भेजी जाती है उनके बदले भारत को बहुत कम मुनाफा होता था। विदेशी व्यापार के कारण भारत के कृषि और भारत के स्वदेशी उद्योग को नुकसान हो रहा था।
19वीं सदी के शुरुआत से ही विदेशी व्यापार के नाम से भारत में से कच्ची सामग्री का विकास किया जाता था और उत्पादित वस्तुओं की आयात कि जाती थी। इस प्रकार ब्रिटिश हुकूमत ने विदेशी व्यापार के नाम से भारत की कृषि से पैदा होने वाले कच्चे माल के लिए इस्तेमाल करके उसका शोषण किया था।
ब्रिटिश सरकार द्वारा रेलवे केवल अंग्रेजों के वाणिज्य लाभों को पूरा करने के लिए स्थापित की गई थी। सबकी सोच गलत थी कि रेलवे की स्थापना भारत के विकास के लिए की गई है। रेलवे की स्थापना से भारत की औद्योगिक क्रांति होने की बजाय अंग्रेजों की वाणिज्य क्रांति हो रही थी। इससे ब्रिटिश सरकार को ज्यादा मुनाफा हो रहा था। रेलवे की स्थापना करने के पीछे ब्रिटिश का मकसद भारत के दूरदराज के विस्तारो से कच्चे माल को निकालना और उत्पादित वस्तु को उस प्रांत तक पहुंचाना था। जि.बी. जोशी ने इस बात पर अपना तर्क रखते हुए कहा था कि रेलवे सिर्फ ब्रिटिश उद्योग के लिए भारत के द्वारा की गई आर्थिक मदद है। तिलक ने भी अपने शब्दों में कहा था कि यह दूसरों की पत्नी के सिंगार पटार का खर्चा उठाने जैसे ही बात है।
रेलवे की तरह ही अस्पताल उद्योग को विकसित और मशीनीकरण के कार्य को आगे लाना औपनिवेशिक लाभों के लिए किया गया था। मुक्त व्यापार की नीति भारत के औद्योगिक विकास में बाधा रुप थी। इस नीति की वजह से भारतीय दस्तकारी उद्योग को खत्म कर दिया था और नवजात तथा अविकसीत उद्योग को पश्चिमी विकास और संगठित उद्योग से स्पर्धा करने के लिए मजबूर कर दिया था। स्पष्ट रूप से यह मुकाबला बराबरी का नहीं था।
ब्रिटिश शासन की सबसे बड़ी बुराई बताते हुए राष्ट्रवादीयो ने कहा था कि भारत की गरीबी का मुख्य कारण भारत की संपत्ति को इंग्लैंड भेजना था। दादा भाई नौरोजी का साथ देते हुए अन्य राष्ट्रवादी नेताओं और पत्रकार ने साम्राज्यवादी अर्थतंत्र के विरुद्ध में आवाज उठाने के लिए भारत के लोगो को संगठित किया था। उनके इस कदम से आर्थिक समस्या और पूंजी विकास के लिए राजनीतीक चेतना लोगों के मन में उत्पन्न हुई थी। इसके पश्चात लोगों को पता चल गया था कि ब्रिटिश शासन का चरित्र लोक कल्याणकारी नहीं है और उनका इरादा भारत को शोषित करने का है।
ब्रिटिश शासन से जिन लोगों को फायदा हो रहा था वैसे साम्राज्यवादी समर्थक ने भारत के आर्थिक विकास के लिए ब्रिटिश सरकार को बनाए रखना आवश्यक है इस बात पर अपना मत दिया। दूसरी तरफ राष्ट्रवादीयो ने उनका विरोध किया और कहा कि केवल ब्रिटिश शासन के कारण ही भारत गरीबी से जूझ रहा है। राष्ट्रवादी नेता अपनी बात पर कायम रहे और दोहराया की जनकल्याण के नाम पर ब्रिटिश सरकार भारत का शोषण कर रहा है। ब्रिटिश हुकूमत इतनी सफाई से भारत का शोषण कर रहा है कि भारत के लोगों को उसके बारे में पता नहीं चल पा रहा था।
प्रारंभिक नेताओं ने अगत्य की बाबत को भारत की राजनीतिक गुलामी के प्रश्नों से जोड़ा और भारत के लोगों तक यह बात पहुंचाई की भारत ब्रिटिश सरकार के लिए केवल शोषण का हथियार है। भारत के लाभ के लिए राजनीतिक सत्ता और प्रशासन स्वतंत्र रूप से भारत के लोगों के नियंत्रण में होना चाहिए।
राष्ट्रीवादियों के राजनीति और राजनीतिक तरीकों में उदारता थी जिसकी वजह से आर्थिक आंदोलन के परिणाम स्वरूप ब्रिटिश साम्राज्य की राजनीतिक जडे कमजोर हो गई थी। वर्ष 1875 से 1905 तक के समय को भारत के बौद्धिक अशांति के समय से जाना जाता है। इस दौरान राष्ट्रीय आंदोलन जोर शोर से चल रहा था।
Last Final Word
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