नमस्कार दोस्तों आज के इस महत्वपूर्ण आर्टिकल में हम बात करने वालें हैं। भारत के वीर स्वतंत्रता सेनानी तात्या टोपे के बारें में, तो चलिए जानते हैं। भारत के इस वीर तात्या टोपे का इतिहास, भारत को अंग्रेजों से आजाद कराने के लिए कई युद्ध हुए, जिनमें कई वीर स्वतंत्रता सेनानी थे, उनमें से एक थे तात्या टोपे। तात्या टोपे ब्रिटिश सरकार के लिए एक बुरे सपने की तरह थे। तात्या ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में अकेले ही लड़ाई लड़ी थी और खुद को स्वर्णिम (Golden) इतिहास में शामिल कर लिया था। उनके बारे में ऐसी कई अनजानी बातें हैं जो सभी को पता नहीं हैं, तो आइए हम आपको तात्या टोपे के इतिहास की महत्वपूर्ण जानकारी आपको इस आर्टिकल के ज़रिये आप तक पहोचाते हैं।
तात्या टोपे का ऐसे शुरू हुआ था जीवन (Tatya Tope’s life started like this)
स्वतंत्रता सेनानी तात्या टोपे का जन्म महाराष्ट्र के एक छोटे से गाँव येवला में एक मराठी हिंदू परिवार में हुआ था। यह गांव पटोदा जिले में नासिक के पास स्थित है। वहीं उनका असली नाम ‘रामचंद्र पांडुरंग येवलकर‘ था। उनके पिता का नाम पांडुरंग त्र्यंबक भट्ट है। उनके पिता महान राजा पेशवा बाजीराव द्वितीय के यहाँ काम करते थे। उनके पिता बाजीराव द्वितीय की सदन-सभा के मामलों को संभालते थे। तात्या की माता रुक्मिणी बाई थीं, वे एक गृहिणी थीं।
1818 में, बाजीराव द्वितीय को अंग्रेजों ने हरा दिया, उन्हें कानपुर के बिठूर गांव भेज दिया। बाजीराव के साथ तात्या टोपे का परिवार भी उनके साथ बिठूर आया था। बाजीराव द्वितीय को अंग्रेजों से हर साल आठ लाख रुपये पेंशन के रूप में मिलते थे। बिठूर जाकर बाजीराव द्वितीय ने अपना सारा समय पूजा में लगा दिया। तात्या केवल चार वर्ष के थे जब वह बिठूर गए थे। तात्या का जीवन बहुत कम उम्र से ही युद्ध के बारे में जाना जाता था।
तात्या टोपे शिक्षा में चपण (Tatya Tope Agile in Education)
तात्या टोपे ने बिठूर गांव में ही लड़ने का प्रशिक्षण प्राप्त किया था। तात्या टोपे ने नाना साहिब (बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र) और स्वतंत्रता सेनानी रानी लक्ष्मीबाई के साथ हथियारों की शिक्षा ली। एक बार धनुष-बाण परीक्षण में, तीनों और अन्य शाही बच्चों (बालाजी राव और बाबा भट्ट) को पांच तीर दिए गए, जिनमें से बाबा भट्ट और बालासाहेब ने 2 बार, नाना साहब ने 3 बार, लक्ष्मीबाई ने 4 बार जबकि तात्या टोपे ने पांचों बाणों से निशाने पर लगा दिया। तात्या का बचपन से ही बहुत बुद्धिमान और पराक्रमी थे।
तात्या टोपे नाम के पीछे की कहानी (The story behind the name Tatya Tope)
जब तात्या बड़े हुए तो पेशवा ने उन्हें एक मुंशी के रूप में रखा। तात्या ने इससे पहले अन्य जगहों पर काम किया था, लेकिन उनका वहां मन नहीं लग रहा था। जिसके बाद पेशवा ने उन्हें यह जिम्मेदारी सौंपी। वहीं तात्या ने इस पद को बखूबी संभाला और इस पद पर रहते हुए उन्होंने अपने राज्य के एक भ्रष्टाचारी कर्मचारी को पकड़ लिया। पेशवा ने उनके काम से प्रसन्न होकर उन्हें अपनी एक टोपी देकर सम्मानित किया और इस सम्मान में दी गई टोपी ने उन्हें तात्या नाम दिया। वहीं लोग उन्हें रामचंद्र पांडुरंग की जगह ‘तात्या टोपे‘ कहने लगे। कहा जाता है कि टोपी पर तरह-तरह के हीरे जड़े होते थे।
तात्या टोपे का 1857 के विद्रोह में अहम् योगदान (Important Contribution of Tatya Tope in Revolt of 1857)
तात्या टोपे का योगदान बहुत ही असीम और वीरतापूर्ण है। जब पेशवा की मृत्यु हुई, तो अंग्रेजों ने डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स नीति के बहाने उनके परिवार को पेंशन देना बंद कर दिया (भारतीय शासक का दत्तक पुत्र उस राज्य का उत्तराधिकारी नहीं होगा और अंग्रेज वहां शासन करेंगे) और उसका शासन छीन लिया। वहीं अंग्रेजों के इस फैसले से नाना साहब और तात्या बहुत नाराज हुए और यहीं से वे अंग्रेजों के खिलाफ रणनीति बनाने लगे। 1857 में जब देश में आजादी की लड़ाई शुरू हुई तो दोनों ने इस संघर्ष में हिस्सा लिया। नाना साहब ने तात्या टोपे को अपनी सेना की जिम्मेदारी देते हुए उन्हें अपनी सेना का सलाहकार नियुक्त किया। वहीं साल 1857 में अंग्रेजों ने कानपुर पर हमला किया और इस हमले को ब्रिगेडियर जनरल हैवलॉक के नेतृत्व में अंजाम दिया गया। नाना ने बहादुरी से लड़ाई लड़ी लेकिन उनकी सेना अंग्रेजों से हार गई।
साथ ही तात्या ने भी हार नहीं मानी और उन्होंने अपनी एक सेना बना ली। तात्या ने अपनी सेना की सहायता से कानपुर को अंग्रेजों के कब्जे से मुक्त करने की रणनीति तैयार की थी। लेकिन हैवलॉक ने भी अपनी सेना की मदद से बिठूर पर हमला किया और तात्या अपनी सेना के साथ इस स्थान पर थे। इस हमले में तात्या एक बार फिर हार गए। लेकिन तात्या अंग्रेजों के हाथ नहीं लग सका।
कानपूर, चरखारी, झांसी और कोंची की लड़ाई तात्या टोपे के हाथो में थी। वे दुर्भाग्य से चरखारी को छोड़कर अन्य स्थानों पर पराजित हुए थे। तात्या टोपे एक बहुत ही योग्य सेनापति थे। कोच की हार के बाद, उन्हें यह समजने में देर नहीं लगी की यदि कोई नया और जोरदार कदम नहीं उठाया गया, तो स्वतंत्रता सेनानियों की हार हो जाएगी। इसीलिए तात्या ने कालपी की रक्षा की जिम्मेदारी झाँसी की रानी और उसके अन्य सहयोगियों पर छोड़ दी और वे स्वयं बदलकर ग्वालियर चले गए। जब हुरोज कालपी की विजय का जश्न मना रहा था, तात्या टोपे ने इतनी उल्लेखनीय सफलता हासिल की के हुरोज हैरान रह गया। तात्या का जवाबी हमला अविश्वसनीय था। वह महाराजा जयाजी राव सिंधिया की सेना में शामिल हो गए थे और ग्वालियर के प्रसिद्ध किले पर कब्ज़ा कर लिया था। झाँसी की रानी, तात्या और राव साहब ने जित का आवरण खेलते हुए ग्वालियर में प्रवेश किया और नाना साहब को पेशवा घोषित किया। इस रोमांचक सफलता ने स्वतंत्रता सेनानियों के दिलों को खुशी से भर दिया, लेकिन इससे पहले कि तात्या टोपे अपनी शक्ति को मजबूत कर पाते, हूरोज ने हमला कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई 18 जून 1858 को फूलबाग के पास हुए युद्ध में शहीद हो गई थीं।
इसके बाद तात्या टोपे का दस माह का जीवन अद्वितीय शौर्य से भरा जीवन है। विद्रोह लगभग हर जगह दबा दिया गया था, लेकिन तात्या ने मुट्ठी भर सैनिकों के साथ एक साल की लंबी अवधि के लिए ब्रिटिश सेना को जर्जर अवस्था में रखा। इस दौरान उन्होंने दुश्मन के खिलाफ ऐसा भीषण छापामार युद्ध किया, जिसने उन्हें दुनिया के गुरिल्ला योद्धाओं की पहली कतार में ला खड़ा किया, इस छापामार युद्ध के दौरान, तात्या टोपे ने मध्य प्रदेश और राजस्थान में दुर्गम पहाड़ियों और घाटियों में, बारिश से बहने वाली नदियों और भयानक जंगलों में इतनी लंबी दौड़ लगाई, जिसने अंग्रेजी खेमे (group) में दहशत पैदा कर दी। बार-बार उन्हें चारों ओर से घेरने का प्रयास किया गया और तात्या को बार-बार युद्ध करना पड़ा, लेकिन यह छापामार योद्धा एक उल्लेखनीय बुद्धि के साथ अंग्रेजों के घेरे और जाल से परे चला गया। तत्कालीन अंग्रेजी लेखक सिल्वेस्टर ने लिखा है कि “तात्या टोपे का हजारों बार पीछा किया गया और घोड़ों को एक दिन में चालीस-चालीस मील तक दौड़ाया गया, लेकिन तात्या टोपे को पकड़ने में कभी सफल नहीं हुए।”
ग्वालियर से निकल कर तात्या चंबल पार कर राजस्थान के टोंक, बूंदी और भीलवाड़ा चले गए। उसका इरादा पहले जयपुर और उदयपुर पर कब्जा करने का था, लेकिन मेजर जनरल रॉबर्ट्स पहले ही वहां पहुंच चुके थे। परिणाम यह हुआ कि तात्या को जयपुर से 60 मील दूर होने पर वापस लौटना पड़ा। फिर उसने उदयपुर पर अधिकार करने का इरादा किया, लेकिन रॉबर्ट्स ने घेर लिया। उसने तात्या का पीछा करने के लिए लेफ्टिनेंट कर्नल होम्स को भेजा, जिसने तात्या का मार्ग अवरुद्ध करने की सभी तैयारी कर ली थी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। भीलवाड़ा से आगे, कांकरोली में, तात्या की ब्रिटिश सेना के साथ एक भयंकर मुठभेड़ हुई, जिसमें वह हार गया।
लेकिन राजस्थान इतिहास कांग्रेस के नौवें सत्र में कुछ ऐतिहासिक सामग्री सामने आई है, जिसके अनुसार मानसिंह और तांत्या टोपे ने एक योजना बनाई, जिसके अनुसार टोपे के वफादार साथी को नकली तांत्या टोपे बनने के लिए राजी किया गया और इसके लिए वह तैयार था। वही नकली तांत्या टोपे को अंग्रेजों ने पकड़कर फांसी पर लटका दिया। असली तांत्या टोपे इसके बाद भी आठ से दस साल तक जीवित रहे और बाद में उनकी प्राकृतिक मौत हो गई। वह हर साल अपने गांव जाता था और अपने परिवार के सदस्यों से मिलता था। गजेंद्रसिंह सोलंकी द्वारा लिखित और अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित पुस्तक “द कथित हैंगिंग ऑफ तांत्या टोपे” नामक दस्तावेज क्या है? श्री सोलंकी ने अपनी पुस्तक में कई दस्तावेजों और पत्रों का उल्लेख किया है और उक्त पुस्तक के मुख्य पृष्ठ पर नारायणराव भागवत की तस्वीर भी छपी है। पुस्तक में उल्लेख है कि इंदौर विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित डॉ. रामचंद्र बिलौर द्वारा लिखित सन् 1957 ई. में नाटक पुस्तक ‘हमारा देश‘ के पृष्ठ संख्या 46 पर फुटनोट में लिखा है कि बात यह है कि राजा मानसिंह ने तात्या को धोखा नहीं दिया था, बल्कि अंग्रेजों की आंखों में धूल झोंक दी थी। फांसी पर लटका एक देशभक्त था, जिसने तांत्या टोपे को बचाने के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे दीया। तांत्या टोपे स्मारक समिति ने वर्ष 1978 में 1857 के क्रांतिकारी पत्र के नाम से “तांत्या टोपे के वास्ते से” प्रकाशित किया है। उक्त पत्र मध्य प्रदेश अभिलेखागार भोपाल (MP) में सुरक्षित है। इसमें मिले अक्षर क्रमांक 1917 और 1918 के दो अक्षर तांत्या टोपे के जीवित रहने के प्रमाण हैं। उक्त पुस्तक में यह भी उल्लेख है कि तांत्या टोपे शताब्दी समारोह का आयोजन बंबई में किया गया था जिसमें तांत्या टोपे के भतीजे प्रो. टोपे और उनकी भतीजी को सम्मानित किया गया था। उनके सम्मान में दोनों ने खुलासा किया कि तांत्या टोपे को फांसी नहीं दी गई थी। उन्होंने कहा कि वर्ष 1909 में तांत्या टोपे की मृत्यु हो गई और उनके परिवार ने विधिवत अंतिम संस्कार किया।
1926 में, एडवर्ड थॉम्पसन की पुस्तक “द अदर साइड ऑफ द मिडीवल” लंदन में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में तांत्या टोपे की फांसी पर संदेह भी व्यक्त किया गया है। इससे सिद्ध होता है कि राजा मानसिंह ने कभी तांत्या के साथ विश्वासघात नहीं किया और न ही उन्हें कभी अंग्रेजों ने जागीर दी। लेकिन अफसोस कुछ इतिहासकारों ने बिना शोध किए ही उन पर यह कलंक लगा दिया।
तात्या टोपे और रानी लक्ष्मी बाई (Tatya Tope and Rani Laxmi Bai)
अंग्रेज झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र को भी अपनी संपत्ति का वारिस नहीं मानते थे। वहीं, अंग्रेजों के इस फैसले से तात्या बहुत नाराज हुए और उन्होंने रानी लक्ष्मीबाई की मदद करने का फैसला किया।
रानी लक्ष्मीबाई ने भी 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह में सक्रिय भाग लिया। 1857 में, सर ह्यूजेस के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने झांसी पर हमला किया। वहीं जब तात्या टोपे को इस बात का पता चला तो उन्होंने रानी लक्ष्मीबाई की मदद करने का फैसला किया। तात्या ने अपनी सेना के साथ ब्रिटिश सेना से लड़ाई की और लक्ष्मीबाई को अंग्रेजों के चंगुल से बचाया। इस युद्ध को जीतने के बाद रानी और तात्या टोपे कालपी गए। जहां जाकर उन्होंने अंग्रेजों से लड़ने के लिए अपनी आगे की रणनीति तैयार की। तात्या जानते थे कि अंग्रेजों को हराने के लिए उन्हें अपनी सेना को और मजबूत करना होगा। तात्या ने महाराजा जयाजी राव सिंधिया से हाथ मिलाया। जिसके बाद दोनों ने मिलकर ग्वालियर के प्रसिद्ध किले पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। 18 जून, 1858 को ग्वालियर में अंग्रेजों से लड़ते हुए लक्ष्मीबाई की हार हुई और उन्होंने अंग्रेजों से बचने के लिए खुद को आग लगा ली। तात्या और लक्ष्मीबाई की वीरता की गाथाएं आज भी जीवित हैं।
तात्या टोपे की फांसी और देश के लिए बलिदान (Tatya Tope’s hanging and sacrifice for the country)
राजा मान सिंह के विश्वासघात के कारण तात्या टोपे जनरल नेपियर से हार गए और ब्रिटिश सेना ने उन्हें 7 अप्रैल 1859 को गिरफ्तार कर लिया। उनकी गिरफ्तारी के बाद, टोपे ने क्रांति में उनकी भूमिका को स्वीकार किया और कहा कि उन्हें कोई दुख नहीं है, उन्होंने जो कुछ भी किया, उन्होंने अपनी मातृभूमि के लिए किया। तात्या को 18 अप्रैल 1859 को शिवपुरी में फांसी दे दी गई और उन्होंने देश के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। उस समय वह केवल 45 वर्ष के थे। तात्या टोपे अपने देश के प्रति प्रेम और बलिदान को देखकर ब्रिटिश शासन स्तब्ध और विस्मय में था।
18 अप्रैल अनोखा योद्धा तात्या टोपे का बलिदान दिवस (18 April Unique Warrior Tatya Tope’s Sacrifice Day)
स्वतंत्रता संग्राम के महान नायक तात्या टोपे का जन्म 1814 में येवला में हुआ था। तात्या का असली नाम रामचंद्र पांडुरंग राव था, लेकिन लोग उन्हें प्यार से तात्या कहकर बुलाते थे।
तात्या टोपे की वीरता पर ‘मालसन‘ ने विदेशी इतिहास के शब्दोंकोष में लिखा है – “दुनिया की किसी भी सेना ने इतनी तेजी से यात्रा नहीं की जितनी तात्या की सेना ने उसकी योजनाओ को पूर्ण करने का प्रयास किया था“। इसकी जितनी तारीफ़ की जाए उतनी ही कम हैं।
श्रीमति हेनरी डबले भी लिखती हैं – “हम उनसे (अंग्रेजो पर) अत्याचारों के लिए उनसे नफरत कर सकते हैं, लेकिन हम उसे सेना नायकत्व के गुणों और योग्यता के कारण हम उसका आदर किए बगेर नहीं रह सकतें”।
तात्या टोपे के जीवन पर बनी फिल्म और टीवी सीरियल (Film and TV serial made on the life of Tatya Tope)
तात्या टोपे के जीवन को टीवी सीरियल्स और फिल्मों में दिखाया गया है। अभिनेता अमित पचौरी ने 2009 में आए ज़ी टीवी के धारावाहिक ‘झांसी की रानी‘ में तात्या टोपे की भूमिका निभाई थी। दूसरी ओर, अभिनेत्री कंगना रनौत की फिल्म झांसी की रानी के जीवन पर आधारित है और अभिनेता अतुल कुलकर्णी ने तात्या की भूमिका निभाई है। इस फिल्म में तात्या टोपे 2019 में आई इस फिल्म का नाम ‘मणिकर्णिका: क्वीन ऑफ झांसी‘ है।
तात्या टोपे को भारत सरकार से मिला सम्मान (Tatya Tope got the honor from the Government of India)
तात्या टोपे की वीरता और योगदान को भारत सरकार ने भी याद किया और उनके सम्मान में भारत सरकार द्वारा एक डाक टिकट भी जारी किया गया। इस डाक टिकट पर तात्या टोपे का फोटो बना हुआ था। इसके अलावा मध्य प्रदेश में तात्या टोपे मेमोरियल पार्क भी बनाया गया है, जहां उनकी प्रतिमा लगाई गई है। तात्या टोपे को जो सम्मान मिला था, वे उसके हकदार थे।
तात्या टोपे की दिलचस्प जानकारी (Interesting Facts about Tatya Tope)
तात्या टोपे ने अंग्रेजों के खिलाफ लगभग 150 युद्ध लड़े हैं। जिससे अंग्रेजों को काफी नुकसान हुआ था और इन युद्धों के दौरान उनके लगभग 10 हजार सैनिक मारे गए थे। तात्या टोपे ने कानपुर को ब्रिटिश सेना से मुक्त कराने के लिए कई युद्ध लड़े। लेकिन मई, 1857 में उसे सफलता मिली और उसने कानपुर पर कब्जा कर लिया। हालांकि यह जीत कुछ दिनों के लिए ही थी और अंग्रेजों ने कानपुर पर फिर से कब्जा कर लिया था। जब तात्या टोपे को शिवपुरी में बंदी बनाया गया तो उन्होंने कहा कि नाना साहब निर्दोष है, सतीचौरा और बीबीगढ़ नरसंहार में उनका कोई योगदान नहीं था।
तात्या टोपे के बारें में पुछे गए कुछ महत्वपूर्ण सवाल के जवाब (Important asked questions about Tatya Tope)
प्रश्न 1: तात्या टोपे का जन्म कहाँ और कब हुआ था ?
जवाब: तात्या टोपे का जन्म वर्ष 1814 में महाराष्ट्र के नासिक जिले के येवला नामक गाँव में हुआ था।
प्रश्न 2: तात्या टोपे का वास्तविक नाम क्या था ?
जवाब: तात्या टोपे का असली नाम रामचंद्र पांडुरंग राव था, हालांकि लोग उन्हें तात्या टोपे के नाम से बुलाते थे।
प्रश्न 3: तात्या कौन थे और किसके सहयोगी थे?
जवाब: तात्या 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी थे और वे झांसी की महारानी लक्ष्मीबाई के सहयोगी थे।
प्रश्न 4: तात्या को “तात्या टोपे” की उपाधि किसने दी और क्यों?
जवाब: पेशवा बाजीराव द्वितीय ने उनके कार्य से प्रसन्न होकर उन्हें टोपी देकर सम्मानित किया और इस सम्मान में दी गई टोपी के कारण उनका नाम तात्या टोपे पड़ा।
प्रश्न 5: तात्या टोपे को कहाँ और कब फांसी दी गई थी?
जवाब: तात्या टोपे को 18 अप्रैल 1859 को शिवपुरी में फांसी दे दी गई थी।
Last Final Word:
आशा है कि आपको भारत के वीर स्वतंत्रता सेनानी तात्या टोपे पर आधारित यह आर्टिकल पसंद आया होगा और इससे जुड़ी सभी जानकारी आपको मिल गई होगी। इस आर्टिकल से जुड़े तात्या टोपे के बारें में अपने विचार हमें कमेंट सेक्शन में लिखकर बताएं।
दोस्तों आपके लिए Studyhotspot.com पे ढेर सारी Career & रोजगार और सामान्य अध्ययन, सामान्य ज्ञान से जुड़ी जानकारीयाँ एवं eBooks, e-Magazine, Class Notes हर तरह के Most Important Study Materials हर रोज Upload किये जाते है जिससे आपको आशानी होगी सरल तरीके से Competitive Exam की तैयारी करने में।
आपको यह जानकारिया अच्छी लगी हो तो अवस्य WhatsApp, Facebook, Twitter के जरिये SHARE भी कर सकते हे ताकि और भी छात्रों को उपयोगी हो पाए। और आपके मन में कोई सवाल & सुजाव हो तो Comments Box में आप पोस्ट कर के हमे बता सकते हे, धन्यवाद्।